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आगम और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में श्रमणाचार
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है। यह विशुद्धि और मोह की अभाव रूप अवस्था वर्तमान के हीन संहननधारी साधक के हो ही नहीं सकती है। आज तो श्रेण्यारोहण की शक्ति का भी अभाव है इसलिए निश्चयचारित्र की सिद्धि मानी ही नहीं जा सकती है, जो साक्षात् मुक्ति लाभ कराने वाली होती है। यह सत्य है कि उसका काल नहीं है किन्तु काल के अभाव में व्यवहारचारित्र को निर्दोष रीति से पालन करने की जिनाज्ञा है। व्यवहार के बिना निश्चयचारित्र का होना असंभव है। जैसे लता के बिना पुष्पोत्पत्ति नहीं है उसी प्रकार व्यवहारचारित्र के बिना निश्चयचारित्र नहीं है। व्यवहारचारित्र निश्चयचारित्र का कारण है। व्यवहारचारित्र के साधक वर्तमान में विद्यमान हैं। आज यदि मोक्ष नहीं है तो मुनियों या मोक्षमार्ग का अभाव तो नहीं माना जा सकता है। चारित्रचक्रवर्ती नामक ग्रंथ में एक प्रसंग है कि एक व्यक्ति ने चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के सामने एक प्रश्न किया था कि जब मोक्ष नहीं है तो आज साधु/मुनि बनने की क्या आवश्यकता है? तब आचार्य श्री जहाँ बैठे थे वहीं एक आम का पेड़ था उसे दिखाकर आचार्य श्री ने उस व्यक्ति से कहा था कि यह पेड़ किसका है तब प्रश्न करने वाले ने उत्तर दिया कि आम का है। आचार्य श्री ने उससे । कहा था कि इसमें आम तो नहीं फिर आम का वृक्ष कैसे है? उस समय उस व्यक्ति ने कहा कि अभी आम के फलने का समय नहीं है। तभी आचार्य श्री ने उससे कहा था कि इसी प्रकार अभी मोक्ष का समय नहीं। मोक्ष जब भी मिलेगा इसी मुनि अवस्था से मिलेगा। इसलिए यह मुनि अवस्था आवश्यक है। वर्तमान में इस मुनि मुद्रा को अवश्य धारण करना चाहिए इसके द्वारा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए ही व्यवहारचारित्र का निर्दोष पालन भी अवश्य ही करना चाहिए। अब मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ाने वाले इसी व्यवहारचारित्र को आगम के परिप्रेक्ष्य में प्रतिपादित किया जा रहा है
संसार शरीर भोगों से निर्विण्ण मुमुक्षु घर के साथ समस्त परिग्रह से अन्तरंग-बहिरंग सम्बन्ध त्यागकर पञ्चाचार पालक आचार्य के पास जाकर दीक्षा प्रदान करने का निवेदन करता है। बन्धु-बान्धवों से आज्ञा लेकर आये हुए भव्य प्राणी की परीक्षा करके आचार्य श्रेष्ठ उसे दीक्षित करते हैं। साधक अपने वस्त्र आदि समग्र परिग्रह का त्याग कर हिंसा से बचने के लिए मयूर पिच्छिका ग्रहण करते हैं। शुद्धि के लिए कमण्डलु ग्रहण करके पंच महाव्रतों का सम्यक् आचरण करता है। आत्म प्रभावना करते हुए ज्ञानाभ्यास के लिए शास्त्र अपने पास में रखते हैं। पीछी, कमण्डलु और शास्त्र के अतिरिक्त किसी भी पदार्थ को अपने पास न रखकर सदा पैदल विहार करते हैं। इनका विहार निरन्तर चलता है। चार्तुमास में चार माह एक स्थान पर रहकर साधना करते हैं। अन्य समय में नगर में पांच दिन और ग्राम में एक दिन रुककर श्रावकों को कल्याण का मार्ग बताते हैं। जिस किसी नगर के सद्गृहस्थ के घर शुद्ध भोजन विधि अनुसार मिल जाता है तो वहीं पर भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन-शयन के अलावा शेष समय आत्मध्यान, स्वाध्याय, शास्त्रचर्चा या उपदेश आदि में व्यतीत करने वाले साधु होते हैं। साधु का स्वरूप स्पष्ट करते हुए रत्नकरण्डकश्रावकाचार में कहा गया है
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