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________________ जैन दर्शन में पर्याय का स्वरूप 189 हैं वह वस्तु का कोई-सा भी अंश नहीं है, अपितु मात्र व्यतिरेकी अंश है। और ऐसा रूढ़िवशात् ही है। ऐसा समझना चाहिए। इसी तथ्य को क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने भी अच्छी तरह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है: "पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है। ध्रुव अन्वयी सहभूत तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से वे अंश दो प्रकार के होते हैं। अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं। वे गुण के विशेष परिणमनरूप होती हैं। अंश की अपेक्षा यद्यपि दोनों ही अंश पर्याय हैं, पर रूढ़ि से केवल व्यतिरेकी अंश को ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है।" पर्याय के भेद __ जैनाचार्यों ने पर्याय के भेदों का निरूपण अनेक प्रकार से किया है। यथा(1) "यः पर्यायः सः द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेति।"12 अर्थ:- जो पर्याय है वह क्रमभावी और सहभावी- इस तरह से दो प्रकार की है। (2) "द्विधा पर्याया द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च।''13 अर्थ:- पर्याय दो प्रकार की है- द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय। (3) "अथवा द्वितीयप्रकारेणार्थव्यंजनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति।"4 अर्थ:- अर्थपर्याय व व्यंजनपर्याय के भेद से भी पर्याय दो प्रकार की होती है। (4) "पर्यायास्ते द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात्।"15 अर्थः- पर्याय दो प्रकार की है- स्वभावपर्याय और विभावपर्याय। (5) "स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते कारणशुद्धपर्यायः कार्यशुद्धपर्यायश्चेति।"6 ____ अर्थः- स्वभावपर्याय दो प्रकार की कही जाती है- कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय। किन्तु इनमें से स्वभाव-विभाव, द्रव्य-गुण और अर्थ-व्यंजन के तीन भेदयुगलों की ही शास्त्रों में विशेष विवक्षा दिखाई पड़ती है। इनको भी हम सामान्यतः इस प्रकार कह सकते हैं कि पर्याय के मूल भेद दो हैं:- स्वभावपर्याय एवं विभावपर्याय। फिर इन दोनों के दो-दो प्रभेद हैं- द्रव्यपर्याय एवं गुणपर्याय। द्रव्यपर्याय का अपर नाम व्यंजनपर्याय है और गुणपर्याय का अपर नाम अर्थपर्याय है। यहाँ हम 'द्रव्यपर्याय का अपर नाम व्यंजनपर्याय है और गुणपर्याय का अपर नाम अर्थपर्याय है'- इस कथन की पुष्टि हेतु निम्नलिखित शास्त्रों के उद्धरण प्रस्तुत करना आवश्यक समझते हैं:(1) "वंजणपज्जायस्स दव्वत्तामुवगमादो।"17 अर्थ:- व्यंजनपर्याय के द्रव्यपना स्वीकार किया गया है। "अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैर्द्रव्यपर्यायाणां हि। व्यंजनपर्याया इति केचिन्नामान्तरे वदति बुधाः।।18 अर्थ:- कछ विद्वान द्रव्यपर्यायों का ही दसरा नाम व्यंजनपर्याय भी कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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