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जैन दर्शन में मन एक तुलनात्मक अध्ययन
सांख्यदर्शन मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय मानता है। ग्यारह इन्द्रियों में मन ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दोनों स्वरूप है, क्योंकि चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रिय तथा वागादि कर्मेन्द्रिय दोनों की मन के आधार ही से अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति होती है। मन का लक्षण संकल्प-विकल्प करना है। विशेषण - विशेष्य भाव का विवेचन मन ही करता है इसलिये संकल्प रूप विशेष धर्म से मन भी एक उभयात्मक इन्द्रिय है।
गौतम दर्शन में मन
गौतम ने अपने न्याय में इन्द्रियों की गिनती करते हुए पांच इन्द्रियों- स्पर्श, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रवण पर ही विचार किया है शेष को छोड़ दिया है। हिन्दु न्याय दर्शन में मन को इन्द्रिय माना गया है, पर पांच इन्द्रियों से भिन्न बताया गया है क्योंकि पांचों इन्द्रियां अपने-अपने निश्चित कर्म में स्थिर हैं। आंख का काम देखना है, पर वह घ्राण का सूंघने का काम नहीं कर सकती है। पर मन अपनी सभी अवस्थाओं और गुणों में प्रत्येक कर्म में अपने को लगा सकता है। वात्स्यायन न्याय सूत्र 1.1.8 के अपने भाष्य में इसको इस तरह उद्धृत करते हैं
भौतिकानिन्द्रियाणि नियतविषयाणि, सगुणानां चैषामिन्द्रिय भाव इति । मनस्तु अभौतिकं सर्व विषयञ्च नास्य स्वगुणस्थेन्द्रियभाव इति । सति चेन्द्रियार्थसन्निकर्षे सन्निधिमसन्निधिं चास्य युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिकारणं वक्ष्याम इति । मनश्चेन्द्रियभावान्न वाच्यं लक्षणान्तरमिति तन्त्रान्तर समाचाराच्चैत प्रत्येतव्यमिति ।
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उद्योतकर भी अपने न्यायवार्तिक में इसी विचार का प्रतिपादन करते हैं। मनः सर्वविषयं स्मृतिसंयोगाधारत्वात् आत्मवत् । सुखग्राहक-संयोगाधिकरणत्वात् समस्तेन्द्रियाधिष्ठातृत्वात् ।
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जैन दर्शन में मन
अन्य दर्शनों की तरह जैन दर्शन में भी इन्द्रियां पांच मानी गईं जिनके सम्बन्ध में आलेख के प्रारम्भ में ही चर्चा की जा चुकी है। आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ में पञ्चेन्द्रियाणि, द्विविधानि निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्। अ. 2 सूत्र 15, 16, 17, 18 में स्पष्ट किया है कि इन्द्रियां पांच होती हैं और द्रव्येन्द्रिय तथा भावेन्द्रिय के भेद से दो प्रकार की हैं परन्तु मन को इन्द्रियों में सम्मिलित नहीं किया है। परन्तु 'श्रुतमनिन्द्रियस्य" त.सू. 2-21 कहकर अनिन्द्रिय अर्थात् मन का कार्य स्पष्ट किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रमाण मीमांसा में लिखा है - स्पर्श-रसगन्ध- रूपशब्दग्रहणलक्षणानि स्पर्शनरस घ्राण चक्षुः श्रोत्राणीन्द्रियाणि द्रव्यभाव भेदानि ।
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यहाँ पर मन को न इन्द्रिय कहा न अनिन्द्रिय बल्कि 'सर्वार्थग्रहणं मनः ' (प्रमाण मीमांसा 1.1.25 ) मन सभी इन्द्रियों के अर्थ ग्रहण का काम करता है।
इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिये कि मन का अन्तर्भाव इन्द्रिय में हो गया। जैसा इन्द्रियों को द्रव्येन्द्रिय तथा भावेन्द्रिय दो रूपों में विभक्त किया गया है। वैसे ही मन के भी भेद किये गये हैं यथा
द्रव्यमन और भावमन । मनोद्विविधा द्रव्यमनोभावमनश्चेति (स.सि. अ. 2/11/170/3) पुद्गलविपाकि कर्मोदियापेक्षं द्रव्यमनः (स.सि. अ. - 2/11/170/3 )
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