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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
द्रव्यमनश्च रूपादियोगात् पुद्गलद्रव्यविकारः (स.सि.-5/3/269/4)
अर्थात् द्रव्यमन पुद्गल विपाकी नाम कर्म के उदय से होता है। रूपादियुक्त होने से द्रव्यमन पुद्गल की पर्याय है जो हृदय स्थान में आठ पांखुड़ी के कमल के आकार वाला है तथा आंगोपांग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्ध से उत्पन्न हुआ है अतः द्रव्यमन कहते हैं। यह अत्यंत सूक्ष्म तथा इन्द्रियागोचर है। (बृहद्, द्रव्यसंग्रह 12/30/3) भावमन
वीर्यान्तराय नोइन्द्रियावरण-क्षयोपशमापेक्षया आत्मनोविशुद्धिर्भाव मनः। अर्थात वीर्यान्तराय और नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहते हैं। (जै. सि. कोष, भाग 3, पृ. 381) दोनों मन कचित् मूर्त व पुद्गल हैं। इस प्रकार पूज्यपाद स्वामी ने और अकलंकदेव ने मन पर विशेष: विचार किया है। अकलंकदेव ने सत्र 1-14 पर अपने तत्वार्थ राजवार्तिक में लिखा है।
"अनिन्द्रियं मनोऽनुदरावत्" इस भाष्य की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैंमनोऽन्तःकरणमनिन्द्रियमित्युच्यते। कथं इन्द्रिय प्रतिषेधेन मन उच्यते। यथाऽनुदरा कन्या इति।
मन को अन्तःकरण या अनिन्द्रिय कहा जाता है इसका अर्थ यह नहीं है कि मन इन्द्रिय नहीं है। हम लोग गर्भधारण करने की क्षमता विहीन कन्या को कहते हैं कि "यह बिना पेट की औरत है" इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके पेट नाम की चीज नहीं है बल्कि वह गर्भधारण करने से असमर्थ है। इसी प्रकार मन को अनिन्द्रिय कहने का मतलब यह नहीं है कि वह इन्द्रिय नहीं है। मन यद्यपि इन्द्रियों की सहायता से सारे कार्य करता है। पर उसमें किसी विशेष कर्म सम्पन्न करने की प्रवृत्ति नहीं है। चक्षु आदि इन्द्रियों की तरह मन और अन्य इन्द्रियों की विभिन्नता इस रूप में निरूपित की जाती है। चक्षु आदि इन्द्रियों की अवस्था कर्मों के सम्पर्क में आकर प्रभाव ग्रहण करती है लेकिन मन वस्तुओं के निकट सम्पर्क में आकर प्रभाव ग्रहण नहीं करता। भाव मन तो आत्म विशुद्धि के कारण अन्तरंग तक प्रभाव स्थापित करता है।
अत: जैन दर्शन में मन की अवधारणा अन्य दर्शनों की अपेक्षा भिन्न ही है। इसका संचालन समुन्नत आत्मा के रूप में होता है।
वैदिक साहित्य में मन को इन्द्रिय नहीं माना है। स्मृतियां तथा अन्य दार्शनिक मन को इन्द्रिय रूप में ही ग्रहण करते हैं। वैदिक साहित्य में इन्द्रियों की संख्या पांच है। स्मृति
और सांख्य दर्शन में इन्द्रियाँ ग्यारह मानी गई हैं। हिन्दू न्याय दर्शन में पांच ज्ञानेन्द्रियां और एक मन को ही इन्द्रिय के रूप में स्वीकार किया गया है।
__ जैन दार्शनिकों का दृष्टिकोण हिन्दुन्याय दर्शन द्वारा वर्णित दृष्टिकोण से कथंचित् समान है। वे मन को इन्द्रिय के रूप में मानते हैं पर अन्य इन्द्रियों एवं मन में अन्तर करते हैं। क्योंकि मन को विशेष अनुपम गुण के फलस्वरूप मन, मनोबल, ईषद् इन्द्रिय, अनिन्द्रिय, नोइन्द्रिय आदि संज्ञा से अभिहित करते हैं। मन में सभी वस्तुओं, कर्मों को ग्रहण करने की क्षमता है जबकि इन्द्रियां किसी विशेष कार्य का ही सम्पादन करती हैं। अतः मन आत्मकल्याण के मार्ग में सापेक्ष होने पर भी निरपेक्ष है।
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