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________________ 184 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ वेद नहीं है अतः “महाभारत को साथ मिलाकर पांच" कथन मात्र से महाभारत को कभी वेद नहीं कहा जा सकता है। अतः उपर्युक्त तर्क के द्वारा "मन के साथ पांच इन्द्रियां छः हुई, से मन को कभी इन्द्रिय नहीं समझना चाहिये"। धर्मराजध्वरिन्द्र लिखित वेदान्त परिभाषा में लिखा है, "न तावदन्तः करणमिन्द्रियमित्यत्र मनमस्ति" कोई प्रमाण नहीं है कि मन (अन्त:करण) इन्द्रिय है। आगे लेखक लिखता है "मनः षष्ठानिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति" (गीता 15/7) का उद्धरण देकर लिखता है मन के साथ छह होने में कोई विरोध नहीं होता, मन को इन्द्रिय के अंग के रूप में नहीं समझा जाय। कथा उपनिषद में आती है कि "इन्द्रियेभ्यः पराह्यर्थः अर्थेभ्यश्च परं मनः" कर्म इन्द्रियों के अंगों के परे है। ऐसा लगता है कि वेदान्त परिभाषा के कर्ता ने अन्त:करण को मन मानकर दूसरे रूप में मन को इन्द्रिय के रूप में मान लिया है। जबकि पांच इन्द्रियों को बहिरिन्द्रय तथा मन को आभ्यन्तर इन्द्रिय कहा गया है। वेद में पाते हैं "एतस्माद् जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च" अर्थात् ईश्वर से प्राण, मन और सभी इन्द्रियों की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार वेदों में सर्वत्र मन के सभी इन्द्रियों से भिन्न होने के उल्लेख मिलते हैं। वेदान्त-सूत्र और मन शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र में लिखा है, "दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशः आत्मशब्देनात्रान्त:करणं परिगृह्यते" अर्थात् पुरुष में दश इन्द्रियां और एक आत्मा जिसे अन्तः करण कहते हैं इस तरह ग्यारह प्राण हैं। इस प्रकार मन को इन्द्रियों से भिन्न ही किया है। वे आगे कहते हैं कि स्मृतियों में मन को इन्द्रिय ही माना है। "स्मृतीत्वेकादशेन्द्रियाणीति मनसोऽपीन्द्रियत्वम् श्रोत्रादिवत् संग्रहयते।" इस प्रकार पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा मन को मिलाकर ग्यारह इन्द्रियाँ प्राचीन मुनियों में मानी हैं। गीता और मन गीता में मन को इन्द्रिय के रूप में स्वीकार किया गया है। वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि बासवः। इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मिचेतना। अ. 10-22 इस प्रकार इन्द्रियों में मन की श्रेष्ठता स्वीकार की गई है। इन्द्रियाणि स्वकीयानि वशे येन कृतानि वैः। जितं लोकत्रयं तेन किञ्चित् तस्य न दुर्लभम्। इसमें भी इन्द्रियों के साथ मन को भी वश में करने के संकेत स्पष्ट हैं। सांख्यसूत्र और मन सांख्यसूत्र में हम पाते हैं "उभयात्मकं मनः" 2-26 अर्थात् मन दोनों प्रकार का होता है। ज्ञानेन्द्रिय रूप और कर्मेन्द्रिय रूप। सांख्यकारिका में यही विचार दृष्टिगोचर होता है। उभयात्मकमत्रमनः संकल्पकानिन्द्रियश्च साधात्। गुणपरिमाणमविशेषान्नानात्वं बाहयभेदतः। का-27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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