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________________ जैन दर्शन में मन-एक तुलनात्मक अध्ययन 183 वचनबल, आयु, श्वासोचछ्वास, जैसे - मक्खी, मच्छर, भौंरा आदि। पञ्चेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं, एक मन सहित जैसे-गाय, भैंस, मनुष्य, पक्षी आदि। दूसरे मन रहित - मन रहित कोई तोता और सांप। मन रहित जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण, कायबल, वचनबल, आयु, स्वासोच्छ्वास नौ प्राण होते हैं। मनसहित जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण, कायबल, वचनबल, मनबल, आयु, श्वासोच्छ्वास दस प्राण होते हैं। सभी प्रकार के जीवों में चेतना अर्थात् आत्मा एक अतिरिक्त प्राण के रूप में होता ही है। दस प्राण सहित को संज्ञी कहते हैं। संज्ञिनः समनस्काः - त.स., अ.2, सू. 24. हित-अहित की परीक्षा तथा गण-दोष का विचार और स्मरणादि करने को संज्ञा कहते हैं। हिताहित में प्रवत्ति मन की सहायता से ही होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में मन का अति महत्व है। मन और इन्द्रियों के कारण होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान माना गया है। -तदिन्द्रियानिन्दियानिमित्तिम् - त.सू., अ.1, सू. 14. इस सूत्र में मन को अनिन्द्रिय कहा गया है। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए पूज्यपाद आचार्य ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में अनिन्द्रिय को ईषद्रिन्द्रियमिन्द्रिमिति कहा है। __ इस प्रकार जैन दर्शन में मनबल, अनिन्द्रिय, ईषदिन्द्रिय, समनस्क, नोइन्द्रिय आदि शब्दों का प्रयोग कर मन के महत्व को स्वीकार किया गया है। आत्मकल्याण करने के लिए मन का होना अति आवश्यक है। अब अन्य भारतीय दर्शनों में मन की स्थिति पर तुलनात्मक विवेचन करने का प्रयास करेंगे। वैदिक साहित्य में मन वैदिक साहित्य में वर्णित प्रसंगों में मन को स्वीकार तो किया गया है पर इन्द्रिय के रूप में नहीं। जैसे अथर्ववेद-काण्ड 21 में पाते हैं कि 'इमानि यानि पञ्चेन्द्रियाणि मन: षष्ठानि मे हृदि ब्रह्मणः संश्लिष्टानि' अर्थात् ये पांच इन्द्रियां मन के साथ छः होकर ब्रह्मा के द्वारा हृदय में उड़ेली गयी हैं। यहाँ पर मात्र पांच ही इन्द्रियों के होने का उल्लेख है। जब मन का इनसे योग होता है तब ये छः हो जाती हैं। बाद के दार्शनिकों ने मन को इन्द्रिय में प्रतिष्ठापित करने में निम्नानुसार तर्क प्रस्तुत किये हैं कि 'मन के साथ छः होने का अर्थ मन का इन्द्रिय होना ही है। मीमांसा दर्शन में वेदों के अनुवाद में सविस्तार आख्यान मिलता है जिसमें सापेक्ष कथन वर्णित है कि हम वेदों में "यजमान पंचमा इडा भक्षयन्ति" अर्थात् पांचों यज्ञ भाव सहित इडा (बुद्धि) का भक्षण करती हैं। यहां चार-चार प्रकार के ऋत्विक पुजारी हैं और पांचवां यजमान है। अत: यह कभी नहीं कहा जा सकता कि "यजमान के साथ मिलकर पांच" में यजमान भी एक (ऋत्विक) वेद कराने वाला है। यजमान हमेशा पुजारी से भिन्न हैं। कल्पना की किसी भी सीमा में वह पुजारियों की कोटि में समाविष्ट नहीं किया जा सकता है। इसी में एक उदाहरण उद्धत किया जाता है "वेदानध्यापयामास महाभारत-पंचमान्" अर्थात उसने महाभारत के साथ मिलाकर पांच वेद सिखलाये। यह ज्ञात है कि महाभारत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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