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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
से धार्मिक उन्माद कार्यरत है, और शक्तिशाली के धर्म को नहीं मानने पर वह कमजोरों का विनाश कर रहा है। अरब-इजराईल युद्ध इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। भारत और पाकिस्तान के बीच इसी धिक्कार की भावना ने कार्य किया है। आज विश्व जाने अनजाने में भी इस्लामिक देशों और नोनइस्लामिक देशों में विभाजित हो गया है। आज की इन समस्याओं में आदमी पिस रहा है। .
हमलोग विश्वशांति की बात करते हैं, और इसी के लिए हमने 'यूनो' जैसी संस्थाओं का गठन भी किया है। लेकिन देखा जाये तो हम उसमें आंशिक सफल ही हुए हैं। जबतक हम मनुष्य को केन्द्र में रखकर इन संकुचित भावनाओं से ऊपर नहीं उठेंगे तब तक हम विश्वशांति की बातें करना फालतू मानते हैं। आज की एक और समस्या धार्मिक उन्माद और एकांतवादिता है तो दूसरी ओर मानव समाज का अधिकांश भाग भूख-गरीबी से त्रस्त है। जिनके पास धन है वे भूखों की ओर उपेक्षा के भाव से देख रहे हैं। अनेकांतवाद यही सूचित करता है कि हम अपनी अमीरी के साथ दूसरों की गरीबी की पीड़ा को भी समझें, और यह समतामूलक दृष्टिकोण अनेकांतवाद की ही एक उपधारा है। भ. महावीर ने जब परस्पर प्रेम की बात कही तो मात्र वैचारिक एकता की बात नहीं थी, समाज में एक समरसता पैदा हो यह भावना भी उनकी मख्य थी।
विश्वशांति में यह अनेकांतवाद ही मुख्य भूमिका अदा कर सकता है। इसे संतों ने तो समझा ही था लेकिन वर्तमान युग में महात्मा गांधी जी ने इसे समझा और पचाया। उन्होंने अंग्रेज जैसी महासत्ता के समक्ष अपना अहिंसक युद्ध छेड़ा, और यह अनेकांत की ही सफलता थी कि गांधी जी ने पाप से घृणा की पापी से नहीं। उन्हें अंग्रेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाकर शोषण करने के प्रति रोष था, अंग्रेजों के प्रति नहीं। यही कारण है कि उन्होंने इस विचार वैविध्य के विस्तरण से उन लोगों के मन को भी बदलने में महद् अंश से सफलता प्राप्त की। महात्मा गांधी ने यों कहें कि भ. महावीर के पश्चात् प्रेक्टीकल रूप में अहिंसा और स्याद्वाद को मूर्तरूप प्रदान किया। उनसे प्रेरित होकर विश्व विभूतियों में अब्राहिम लिंकन, किंगमार्टन ल्यूथर, नेल्सन मंडेला और आज अनेक देशों के लोग इस तथ्य को मानने लगे हैं कि भ. महावीर या आईन्स्टाईन के सापेक्षवाद या महात्मा गांधी के परस्पर मैत्री के सिद्धान्त से ही विश्व शांति संभव हो सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने विचारों के साथ दूसरों के विचारों को भी समझें।
मैंने ऊपर 'यूनो' का जिक्र किया। आज ऐसी अनेक विश्वस्तर की संस्थायें हैं जहाँ परस्पर विरोधी विचारों के लोग भी एक साथ बैठकर एक मंच से अपनी बातों को प्रस्तुत करते हैं। अनेक तर्क और वितों के पश्चात् वे अपने विचारों में परिवर्तन और परिवर्धन करते हैं। मैं यह समझता हूँ कि भले ही आज एक ओर परस्पर मार-काट का माहौल बना हुआ है, त्रासवाद के कारण आतंक छाया हुआ है लेकिन इन घने निराशा के बादलों के बीच भी आशा की यह किरण आस्था प्रदान करती है कि परस्पर विरोधी लोग कम से कम एकमंच पर बैठकर विचार विनिमय तो करते हैं। यह अनेकांतवाद की ही विजय है, और हमने यह भी देखा है कि अनेक समस्याओं का निदान इसी के कारण हुआ
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