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________________ विश्व-शांति और अनेकांतवाद 157 चूंकि उनके स्थानों पर ब्रह्मवादियों या एकांत दार्शनिकों के कथनों में ही स्याद्वाद की परोक्ष स्वीकृति, स्याद्वाद की महत्ता की स्वीकृति द्योतक कुमारिल भट्ट एवं पातंजलि के ही ऐसे उदाहरण अपने ग्रन्थ अध्यात्मोपनिषद् में उद्धरित कर स्याद्वाद की प्रतिष्ठा को प्रस्थापित किया है। होते रहें उनका निषेध न होने पावे इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक बाह्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है। इस विवेचन या चर्चा-चिंतन के पश्चात् इतना स्पष्ट हो ही गया कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मी है। उसकी परख विविध दृष्टिकोण से हो जाये तो उसका सही मूल्यांकन किया जा सकता है। प्रत्येक पदार्थ पर्यायानुसार परिवर्तनशील है पर द्रव्यार्थिक दृष्टि से स्थिर भी है। स्याद्वाद का व्यवहारिक स्वरूप व्यक्तियों के बीच प्रेम, मैत्री और समभाव को पनपाता है। चित्त को रोग-द्वेष मुक्त करके स्वस्थ बनाता है। "ग्रंथी" से बचाता है। विश्व अशांति दूर करने का इससे सरल उपाय क्या होगा कि हम अपनी बात मनवाने के साथ दूसरों की बात भी माने। वर्तमान युग के महान वैज्ञानिक आईन्स्टाईन के सापेक्षवाद में दृष्टि वैविध्य से वस्तु परीक्षण में स्याद्वाद दर्शन ही तो प्रस्थापित हुआ है। परस्पर द्वेष का कारण दृष्टि भेद हैं इसे प्रेम में परिवर्तित किया जा सकता है। दृष्टि को समझने की स्याद्वादमयी विशालता-सरलता एवं तरलता से है। हमने अनेकांत और स्यावाद की विषद चर्चा की और बीच-बीच में हम यह भी प्रस्तुत करते रहे कि संसार में प्रेम, मैत्री के भाव इसी से जागृत हो सकते हैं। जब हम विश्वशांति की बात करते हैं तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक युग में अशांति के कारण के मूल में मनुष्य की एकांतवादिता या उसकी स्वार्थभावना ही केन्द्र में रही है। यह सत्य है कि आज विश्व में जो अशांति है उसके मूल में वैचारिक एकांतवाद ही प्रमुख है। पूरा विश्व जैसा कि दो प्रकार की विचारधाराओं में बंट चुका था, एक मूढवादी विचारधारा और दूसरी साम्यवादी विचारधारा। इस विश्व में जो वर्षों से युद्ध या शीतयुद्ध चलते रहे उसका कारण था कि "मेरी ही विचारधारा सही है।" यह भाव इसके मूल में था। विश्व के ये राजनीतिज्ञ एक दूसरे के विचारों को समझना ही नहीं चाहते थे। इसके पीछे सत्ता का मद और मूल में देखा जाय तो अति परिग्रह की एषणायें ही मुख्य थीं। इस युग की विचित्रता तो यह रही कि किसी की जमीन हड़पने से अधिक अपने विचारों से उसे दबाना या आक्रमण करना प्रमुख भाव रहा, और कहीं धार्मिक उन्माद भी इस एकांत के पोषण में महत्वपूर्ण रहा। यदि हम दोनों विश्वयुद्धों पर नजर करें तो ये ही एकांतवादिता उसके मूल में कारणरूप रही। यहूदिओं को मार डालना हिटलर का उद्देश्य रहा। तो साम्यवादियों को कुचल देना अमेरिका का उद्देश्य रहा, तो विश्व को ड्रेगन के हवाले ही कर लेने की भावना रखना साम्यवादियों का उद्देश्य रहा, और इन्हीं एकांतवादियों ने पूरे विश्व को बंदी बनाया और उसका विनाश भी किया। वर्तमान काल में भी जो धरती पर प्रत्येक क्षेत्र में युद्ध हो रहे हैं उसकी तह में जाकर के देखा जाय तो सर्वाधिक रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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