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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
अर्धसत्य तक पहुंचा देता है। इस अर्धसत्य मान्यता का खंडन करते हुए भी महेन्द्र कुमार जी ने सच ही लिखा है कि "राधाकृष्णन इसके हृदय तक नहीं पहुंचे, न ही उन्होंने जैन दर्शन के उस सत्य को परखा जो वेदांत की तरह चेतन और अचेतन काल्पनिक अभेद की दिमागी दौड़ में शामिल नहीं हुआ। साथ ही जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्त धर्मात्मक है, तब उस वास्तविक नतीजे पर पहुंचने को अर्धसत्य कैसे कह करते हैं?" डॉ. देवराज जी ने भी " पूर्व और पश्चिमी दर्शन" में स्यात् का अनुवाद 'कदापि' किया जो ठीक नहीं। क्योंकि कदाचित् तो संशय ही उद्भव करेगा।
अरे! प्रमाणवार्तिक में आचार्य धर्मकीर्ति तो जैसे रोष में प्रलाप ही कर बैठे और बलिहारी तो यह है कि सभी तत्वों को उभयरूप मानने के संदर्भ में वे दही और ऊँटों को एक मानकर दही की जगह ऊँट खाने की बात कर बैठते हैं। अब इसे तर्क कहा जाये या विकृति या कुतर्क ! उन्हें यही भेद मालूम नहीं कि द्रव्य की अतीत और अनागत पर्यायें जुदी हैं। व्यवहार तो वर्तमान पर्याय के अनुसार चलता है।
प्रज्ञाकर गुप्त जैसे चिंतक तो वस्तु के उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य को ही सत्य नहीं मानते। वे क्या यह स्वीकार करते हैं कि मिट्टी घट बनकर मिट्टी के मूल स्वरूप में है? क्या पर्याय नहीं बदली? क्या एक क्षण के व्यय हुए बिना नया क्षण आयेगा ? क्षण सन्तति निरन्तर चालू रहती है। काश वे समझ सकते कि- 'वर्तमान क्षण में अतीत के संस्कार और भविष्य की योग्यता का होना ही ध्रौव्यत्व की व्याख्या है।' इसी प्रकार तत्कालीन अनेक बौद्धचार्यो एवं हिन्दू धर्म के चिंतकों ने 'स्यात्' को पूर्ण रूप से न समझने के कारण या एकांतवादी दृष्टि से इसमें शंका कदाचित्, अर्धसत्य जैसे विधानों से अपना रोष या विरोध प्रकट किया। श्री श्रीकंठ जैसों ने स्याद्वाद में अपेक्षा रूपी व्यवस्था को गुड़ चटाकर मूर्ख बनाने वाली बात ही कह दी। श्री रामानुजाचार्य या बल्लभाचार्य इसे विरोधाभाषी दूषण दृश्य उपस्थित करने वाला दर्शन ही मानते रहे। चूंकि ये सब वेदों के एकांतवाद से प्रभावित हैं अतः ऐसी विचार वैविध्य की भाषा दर्शन को मानना संभव भी कैसे होता ?
इन सभी विचार धाराओं पर विचार प्रकट करते हुए डॉ. महेन्द्र जी ने कितना सचोट तर्क प्रस्तुत किया है। "व्यतिकर परस्पर विषय गमन से होता है यानी जिस तरह वस्तु द्रव्य की दृष्टि से नित्य है तो उसका पर्याय की दृष्टि से भी नित्य मान लेना या पर्याय की दृष्टि से अनित्य है तो द्रव्य की दृष्टि से भी अनित्य मानना । परन्तु जब अपेक्षायें निश्चित हैं, धर्मों में भेद हैं, तब इस प्रकार के परस्पर विषयगमन का प्रश्न ही नहीं है। धर्मी की दृष्टि से तो संकर और व्यतिकर दूषण नहीं, भूषण ही है। भगवान महावीर ने उपेय तत्व के साथ उपाय तत्व का भी सांगोपांग वर्णन करके सारे संशय दूर किये। क्षु. जिनेन्द्र वर्णी जी ने जैनेन्द्र सिद्धांत कोश में कितना स्पष्ट अर्थ किया है 'मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता को अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते रहें, उनका विषेध न होने पाये, इस प्रयोजन से अनेकांतवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है।
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