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________________ विश्व-शांति और अनेकांतवाद 155 ये सात कथन- प्रकार पूर्ण परीक्षण में सहायक होंगे। महापंडित राहुल जी ने इस स्याद्वाद की उत्पत्ति संजयवेलपित्त के चार अंगों वाले अनेकान्तवाद से मानते हुए उसे ही सात अंगों में परिवर्तित माना है। पर राहुलजी ने संजय के नितांत अनिश्चयवाद के साथ कैसे स्याद्वाद को जोड़ा यह विचित्र लगता है! डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य ने इन विविध मीमांसकों के मतों के साथ स्याद्वाद के विषय में स्पष्टता की है। - मैं पहले ही उल्लेख कर चुका है कि जहां भगवान बुद्ध ने शंका निवारण के स्थान पर मौन धारण किया या शिष्यों से यह कहकर- 'इनके बारे में कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्या के लिए उपयोगी नहीं, न वह निर्वेद, निरोध शांति परमज्ञान या निर्वाण के लिए आवश्यक है।'- उन्हें मौन कर दिया, वहीं महावीर ने जिज्ञासुओं को मौन रहने का आदेश नहीं दिया, अपितु उनकी जिज्ञासा को संतुष्ट किया। संजय की भांति अनिश्चितता का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस संतुष्टि का आधार था सप्तभंगी एवं स्याद्वाद पद्धति। डॉ. सम्पूर्णानंद ने इसे सप्तभंगी न्याय या स्याद्वाद की बाल की खाल निकालने वाली पद्धति कहा। पर वे भूल गये कि वाद-विवादों, संशय एवं अनिश्चितता के युग में यह परम आवश्यक पद्धति थी। डॉ. जैन ने सही लिखा-'जैन दर्शन ने दर्शन शब्द की काल्पनिक भूमि से उठकर वस्तु सीमा पर खड़े होकर जगत में वस्तु स्थिति के आधार से संवाद, समीकरण और यथार्थ तत्वज्ञान की अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद भाषा दी, जिनकी उपासना से विश्व अपने वास्तविक स्वरूप को समझ, निरर्थक वादविवाद से बचकर संवादी बन सकता है।' श्री शंकराचार्य जी ने एक ही पदार्थ में "अस्ति एवं नास्ति" परस्पर विरोधी धर्म का होना असंभव मानकर इस स्याद्वाद कथन को असंगत कथन कहा है। श्री शंकराचार्य जी चूंकि एक ही पदार्थ में शीत-उष्ण होने की बात का उदाहरण देकर कुछ तर्कों द्वारा सिद्धांत को असंगत कहते हैं पर वे भूल गये कि अपेक्षा भेद से एक ही पदार्थ में अनेक विरोधी धर्म हो सकते हैं। जैसे कोई व्यक्ति बड़े की अपेक्षा कनिष्ठ है तो छोटे की अपेक्षा ज्येष्ठ भी है। अरे! एक ही नरसिंह स्वरूप पर एवं सिंहशरीर के भाग की अपेक्षा क्या सत्य नहीं है। तात्पर्य कि हमें सापेक्ष दृष्टि से देखना होगा। हां यदि एक ही दृष्टि से "अस्ति/नास्ति" कथन हो तो अवश्य दोष होगा। जैसे एक व्यक्ति को पति और पुत्र एक ही स्त्री के संबंध में कहा जाये तो भारी विडंबना होगी ही। स्वर्ग-नरक की दृष्टि से नास्ति होने पर क्या स्वर्ग मिट गया? शंकराचार्य जी ने अपेक्षा भेद से इस सिद्धांत को समझा होता तो शायद वे स्पष्ट हो सकते थे। श्री प्रो. बलदेव उपाध्याय भी यद्यपि स्यात् का शब्दार्थ "शायद" नहीं करते पर 'सम्भवतः' शब्द को मानकर वे श्री शंकराचार्य जी का समर्थन करते हैं। श्री शंकराचार्य जी की मान्यता को विद्वान भी रुचिगत मानते जा रहे हैं जो लोग "स्याद्वाद" में "स्यात्" का अर्थ "संभवत:" मानते हैं वे भी अर्धसत्य तक ही अपनी दृष्टि दौड़ाते हैं। स्याद्वाद तो वस्तु के निश्चित गुण कथन स्पष्टता का द्योतक है अत: उसमें संशय या संभावना दोनों की कल्पना ही अव्यवहारिक है। वर्तमान युग के विद्वान चिंतक डॉ. राधाकृष्णन ने स्याद्वाद को अर्धसत्य तक पहुंचाने वाला ज्ञान माना है। पूर्ण सत्य नहीं जाना जा सकता। उनके अनुसार स्याद्वाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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