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________________ 154 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ अपना विरोध करते हैं। सूक्ष्मता से देखा जाये तो वस्तु विरोधी स्वभावी नहीं है, अपितु विरोध हमारी दृष्टि या समझ का है। इसी ना समझी की औषधि यह "स्यात्" है। हिन्दू जहाँ पर वस्त ईश्वर निर्मित मान ली, वहीं एकांगी विचार पनपे। इसी संदर्भ में जाति-पांति के भेद बढ़े। इतना ही नहीं, ईश्वर को अवतारी मानने के कारण उसके सभी कृत्य लीला बन गये। वेद ईश्वर कथित माने गये और उन्हें ही आस्तिकता का मानदंड मानकर, उन्हें न माननेवाले लोग या विचारधारा को नास्तिक कहकर तिरस्कार की दृष्टि से देखा गया, जिसका शिकार जैन व बौद्धधर्म बने। जाति-पांति का वैमनस्य, ईश्वर के प्रति मान्यताओं का विषय ज्वर इसी से पनपा। जैनधर्म या सिद्धान्त ने वस्तु को उत्पाद-व्यय एवं ध्रौव्य मानते समय स्थान, काल, द्रव्य, भाव के साथ परिणामी माना है। एक ही वस्तु द्रव्य के परिप्रेक्ष्य में स्थिर है तो पर्याय के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तनशील भी है। जैसे सोना द्रव्य है- स्थिर या अविनाशी है ... पर अलग-अलग गहनों में परिवर्तन उसका विनाश भी है। कुछ लोग यह शंका उठाते हैं कि एक ही साथ एक ही वस्तु स्थाई भी है और अस्थाई भी है यह कैसे संभव है? पर वे भूल जाते हैं कि इस कथन में द्वन्द्व या शंका नहीं है पर उसका परीक्षण द्रव्य एवं पर्याय के संदर्भ में होने से वह अमिट भी है और उसमें परिवर्तनशीलता या वैविध्य भी देखते हैं। उसके मूल में वही गुण वैविध्य है- या पर्याय परिवर्तन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। सच कहें तो संसार की परिवर्तनशीलता इसी गुण के कारण है। इसीलिए जैन दर्शन के अनुसार संसार का कभी पूर्ण नाश नहीं होता। उसमें निरंतर क्षय और निर्माण की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। हाँ दृश्य परिवर्तन होते रहते हैं। जैन दर्शन में इस स्याद्वाद की मदद से हम वस्तु के अनंत धर्म एवं अर्थ को पकड़ सकने में सफल बनते हैं। जैनाचार्यों ने इस स्याद्वाद को श्रुतज्ञान का सकलदेश रूप माना है। जिसे 'प्रमाण' कहा है। जो वस्तु के अखंड स्वरूप को ग्रहण करता है। आचार्य अकलंकदेव ने सरलता से स्पष्ट किया है कि जहाँ "अस्ति" शब्द के द्वारा सारी वस्तु समग्र भाव से पकड़ ली जाय वह सकलादेश है। .... सकलादेश में समग्र धर्म अर्थात् पूरा धमी एकभाव से गृहीत होता है। इसी प्रकार आ. सिद्धसेनगणी, अभयदेवसूरी आदि ने "सत्, असत् और अवक्तव्य" इन तीनों भंगों को सकलादेशी माना है। जबकि उपा. यशोविजय जी ने सातों भंगों को संकलादेशी एवं विकलादेशी (एक धर्म का मुख्य रूप से कथन करने की पद्धति) माना है। इस 'स्याद्वाद' को लेकर अनेक धर्मावलंबी विद्वानों ने विविध रूप से मूल्यांकन किया है जो अनेक प्रकार से विवादास्पद या स्याद्वाद को पूर्ण रूप से आत्मसात् न करने के कारण या एकांगी दृष्टि के कारण दोष युक्त ही रहा। अरे! ये आलोचक या मतप्रवर्तक महावीर की उस दृष्टि को नहीं समझ सके जिसमें वस्तु को अधिक से अधिक कथनों से जानने समझने का विधान है। जो सप्तभंगी के सिद्धांत से प्रसिद्ध हुई। वस्तु को गुणात्मक, ऋणात्मक या उभय रूपों से देखने का प्रतिपादन ही इस तथ्य का द्योतक है कि मात्र एक ही कथन या दृष्टि से वस्तु के अनन्त धर्मों का कथन असंभव है और उसके प्रति पूर्ण न्याय के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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