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________________ विश्व-शांति और अनेकांतवाद 153 को समझना चाहिये। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि "स्याद्वाद" सोचने की चिंतन की विशाल प्रदान करता है। हम जिस समय जो सोचते हैं वह उतने में पर्ण निश्चय है- संशय नहीं। सच तो यह है कि वस्तु या विचार गत "यही है", या "इसके अलावा कोई सत्य नहीं" जैसे एकांगी भाव ही संघर्ष, मतभेद एवं संकीर्णता को जन्म देते हैं। व्यक्ति को अनुदार बनाते हैं जो अपनी ही बात मनवाने को हिंसात्मक तक हो जाता है। आज के संघर्षों की जड़ इन्हीं एकांगी विचारों का परिणाम है। विद्वानों ने इस "अस्ति" के माध्यम से परीक्षण कर विविध दृष्टियों से सत्य को समझने का प्रयास किया। एकाधिकार वाद का दूषण इसी से मिटाना संभव है। "स्यात्" शब्द एक ऐसी अंजनशलाका है जो दृष्टि को विकृत नहीं होने देती, वह उसे निर्मल और पूर्ण दर्शी बनाती है।" यह जैनधर्म की विशालता ही है कि उसने परस्पर विरोधी मालूम होने वाले धर्मों को भी सामंजस्य से देखा और परखा। इसीलिए उसे वास्तव में बहुत्ववादी कहा गया है। वह प्रत्येक वस्तु या विचार पर सहानुभूति से विचार कर निरर्थक भ्रम जालों को तोडता है और विचारों को तो शुद्ध करता ही है, वाणी को भी शुद्ध बनाता है। डॉ. महेन्द्र कुमार जैन न्यायाचार्य ने ठीक ही लिखा है- "जहां अनेकान्तदर्शन चित्त में माध्यस्थ भाव, वीतरागता और निष्पक्षता का उदय करता है वहाँ स्याद्वाद वाणी में निर्दोषता आने का पूरा-पूरा अवसर देता है।" भगवान महावीर का समय वह समय था जब उपनिषदवादी विश्व सत् है या असत्, उभय या अनुभय की अनिश्चितता में थे..... जब महात्मा बुद्ध विचार वैविध्य से बचने या टालने के लिये या तो मौन थे या शिष्यों को मौन रहने का उपदेश दे रहे थेउस समय इन विविध मान्यताओं को विरासत में लेकर महावीर के पंथ में दीक्षित होने वालों को जिज्ञासा की पूर्ण तृप्ति आवश्यक थी अन्यथा वैचारिक संघर्ष भविष्य के लिये बड़ा अनिष्टकारी हो जाता। अत: महावीर ने वीतरागता और अहिंसा के उपदेश से बाह्य व्यवहार शुद्धि के साथ चित्त के अहंकार और हिंसा को बढ़ाने वाले सूक्ष्म मतभेदों को भी निर्मूल किया। उन्होंने वस्तु के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परिणामी स्वरूप को समझाया और द्रव्य एवं पर्याय की दृष्टि से उसकी नित्यता एवं अनित्यता को स्पष्ट किया। सचमुच इस सापेक्ष दृष्टि ने शिष्यों को निर्द्वन्द्व बनाया। कथन के साथ या उससे भी विशेष वस्तु के परीक्षण पर जोर दिया। अग्नि गरम या ठंडी इस चर्चा को मतभेद का विषय बनाने से क्या यह अच्छा नहीं कि उसको छूकर सही दशा को परखा जाये। 'स्याद्वाद' यह स्पष्ट करता है कि भाई! किसी वस्तु का एक ही बार एक ही दृष्टि से पूरा परिचय दे देना असंभव है। यह स्यात विद्यमान गुण-धर्मों के साथ अविद्यमान गुणों या अविविक्षित गुणों के अस्तित्व का भी द्योतन कराता है। इसीलिए विद्वानों ने इस स्यात् को एक सजगता का प्रतीक भी माना है। "स्याद्वाद" अनेक विकल्पों को दूर करता है। श्रीमद् राजचन्द्र ने ठीक ही कहा- "करोड़ ज्ञानियों का एक ही विकल्प होता है जबकि एक अज्ञानी के करोड विकल्प होते हैं।" जो भी लोग एकांतवादी होते हैं वे वस्तु के धर्म वैविध्य को समझे बिना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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