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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
है। थोड़ा सा और गहरे उतरें तो निश्चित अपेक्षा में एक निश्चित दृष्टिकोण या निश्चित विचारों का बोध निहित है; जो यह संकेत देता है कि वस्तु के जिस अंश के बारे में जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जा रहा है वह उस अंश का पूर्ण कथन है। पर साथ ही यह भी दिशा निर्देश होता है कि कथित अंश के उपरान्त अन्य शेष अंश में अन्य गुण भी हैं। युगपुरुष हेमचन्द्राचार्य ने 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' ग्रंथ में स्पष्ट करते हुए लिखा है कि " स्यात् " अर्थात् " अमुक अपेक्षा से", या अमुक दृष्टिकोण। स्यात् यहाँ अव्यय है जो अनेकान्त सूचक है। अर्थात् अनेकांत रूप से कथन शैली ही स्याद्वाद का अर्थ है। इसका दूसरा नाम अनेकांत है। 'अनेक' एवं 'अन्त' शब्द का युग्म है। यहाँ अंत का अर्थ धर्म, दृष्टि, दिशा अपेक्षा किया जायेगा। सरल शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि वस्तु के हम जिस गुण की चर्चा प्रमुख रूप से कर रहे हैं उसमें अन्य गुण या स्वभाव भी विद्यमान हैं ही। इससे यह प्रतिफलित या सिद्ध होता है कि वस्तु में अनेक धर्म अर्थात् गुण विद्यमान हैं एवं अंश में सभी धर्म या स्वभाव पूर्ण हैं यह कथन असंभव है और ऐसाकथन अपूर्ण होगा। वस्तु एक ही निश्चित स्वभावी या निश्चित गुण धर्म स्वभावी है यह कथन ही एकांत दृष्टि युक्त है जो अन्य गुणों की उपस्थिति का अस्वीकार या तिरस्कार है, जो संघर्षों का जनक है। इसी वैचारिक या मानसिक संघर्ष को टालने के लिये वस्तु के अनेक स्वरूपी रूप को स्वीकार करते हुए उसे वाणी की शुद्धता भी जैनदर्शन ने प्रदान की।
जैनदर्शन के इस 'स्यात्' में मात्र स्यात् नहीं अपितु "स्यादस्ति" का प्रयोग किया है। देखिए स्यात् के साथ संलग्न अस्ति एक स्वीकृति है। अर्थात् अपेक्षित है। सर्व प्रथम " अस्ति" यानि हकारात्मक या विधेयात्मक दृष्टि को ही स्वीकार किया है। किसी वस्तु में निहित तथ्य या लक्षण का "नास्ति" या मात्र स्यात् " शायद " की अनिश्चितता में प्रयुक्त नहीं किया। इससे इतना तो तय हो ही जाता है कि कथित तथ्य के " अस्ति" बोध का स्वीकार है। इस अस्ति में स्वीकृत वस्तु के स्वभाव या गुणधर्म का स्वीकार करते हुए भी हम यह नहीं कहते कि "यह ही है"। हम कहते हैं यह भी है अर्थात् अन्य गुण या धर्म भी हैं। तात्पर्य कि हम जिसका कथन कर रहे हैं उसके उपरांत के गुणों का हम निषेध नहीं कर रहे। अपने विचारों की स्थापना जैसा कि हम वस्तु के स्वरूप को वर्तमान में निहार रहे हैं- करते हुए उसके प्रति अन्य दृष्टिकोणों का निषेध नहीं करते। परिणाम स्वरूप अपने कथन के साथ अन्य कथन में विरोधी नहीं बनते और वैचारिक संघर्ष नहीं करते। वाणी में कटुता नहीं लाते और वैचारिक आक्रमण से बचते हुए सूक्ष्म हिंसा से भी बच जाते हैं। इस प्रकार यह " स्यात् " वस्तु के कथित धर्मों के साथ अन्य स्थित धर्मों का रक्षक बन जाता है। जिस समय जिस वस्तु को जिस परिस्थिति और संदर्भ में देखते हैं उस समय तथाकथित गुण मुख्य बन जाते हैं पर अन्य गुण नष्ट नहीं हो जाते। यदि अन्य व्यक्ति अन्य गुणों की अपेक्षा वस्तु का कथन करे तो उसे असत्यभाषी कैसे कहा जा सकेगा? उदाहरणार्थ एक व्यक्ति पत्नी की अपेक्षा से पति है, उसी समय वह मां की अपेक्षा से पुत्र भी है। यहाँ व्यक्ति को परखने का दृष्टिकोण है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु, विचार आदि
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