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विश्व शांति और अनेकांतवाद
है। जब हम दो विरोधी देशों के बीच मंत्रणाओं की बात सोचते हैं तब उसके केन्द्र में देखा जाय तो यह अनेकांत ही प्रमुख रहता है। क्योंकि परस्पर विरोधी जब बैठते हैं तो अपने-अपने हठाग्रहों को छोड़ने की मंशा बना लेते हैं। यही मंशा बनाना अनेकांतवाद का स्वीकार है और इसके प्रत्यक्ष उदाहरण के रूप में हम देखते हैं कि दो जर्मनी एक हो गये। कोरिया एक होने का प्रयत्न कर रहा है। यह पुनः एकता की जन्मी हुई भावना वैचारिक विद्वेश और एकांतवाद को तिलांजली देना है। आजका विश्व संपर्क साधनों के कारण बहुत छोटा हो गया है। इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया के कारण हम अति निकट हो गये हैं। एक देश की छोटी-सी घटना भी एक क्षण में पूरे विश्व में फैलती है, और लोगों को विचार करने पर या सोचने को मजबूर करती है। मैं यह समझता हूँ कि एक-दूसरे के प्रति यह भावना ही हमें परस्पर प्रीति या सहकार के साथ जीने की कला सिखाती है।
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अनेकांतवाद तो कहता ही है कि 'मैं' की सोच को बदलकर 'हम' की सोच को विकसित करें। 'हूँ' ही के स्थान पर 'हो भी सकता है' के चिंतन का विकास करें। जिस दिन मनुष्य - मनुष्य के हृदय को समझने लगेगा, परस्पर की भावनाओं को समझने लगेगा तब उसमें से अहम् का दूषण दूर होगा। अपने सच के साथ दूसरों के सच को समझने की क्षमता बढ़ेगी, और तभी हम विश्वशांति की ओर सही अर्थों में आगे बढ़ सकेंगे, और तभी हम जैनदर्शन के 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के व्यक्तिगत सिद्धांत को वैश्विक सिद्धांत के रूप में विकसित कर सकेंगे।
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आओ हम परस्पर वैयक्तिक संकुचितताओं को छोड़कर मानव मात्र और प्राणिमात्र के कल्याण की बात सोंचे और ऐसे विश्व के निर्माण की ओर अग्रसर हों जहाँ परस्पर प्रीति हो, सन्मान हो, सहयोग हो, जहाँ बारूद और बम की जगह भजन और गीतों की गूँज हो
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