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________________ विश्व शांति और अनेकांतवाद डॉ. शेखरचन्द्र जैन* आज हम जब विश्वशांति और अनेकांतवाद की चर्चा कर रहे हैं इस संदर्भ में हम इस विषय को इस प्रकार प्रस्तुत करना चाहेंगे- सर्वप्रथम हम अनेकांतवाद की व्याख्या और उसकी उपयोगिता पर विचार करेंगे। तत्पश्चात् यह सिद्धांत विश्वशांति में कितना उपयोगी या महत्वपूर्ण हो सकता है इसकी चर्चा करेंगे। अनेकांतवाद जैनदर्शन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्धांत है। यह जैन दर्शन की रीढ़ है यों कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसे आचार्यों ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि सिद्धान्त में जो अनेकांतवाद है उसे प्रस्तुत करने की कला स्याद्वाद है। हम यों भी कह सकते हैं कि अनेकांत और स्याद्वाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम इसी परिप्रेक्ष्य में इस सिद्धान्त की दर्शन के संदर्भ में और फिर इसके व्यवहारिक पक्ष पर विचार करेंगे। आचार्यों ने इसके अनेक लक्षण प्रस्तुत किये हैं। धवला में कहा गया है कि " अनेक धर्मों या स्वादों के एक रसात्मक मिश्रण से जो जात्यंतरपना या स्वाद उत्पन्न होता है वही अनेकांत शब्द का वाच्य है।" इसी प्रकार यह भी उल्लेख प्राप्त हुआ है कि एक वस्तु में वस्तुत्व को उपजाने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है एवं जो अनंतधर्मा है वही अनेकांत है। अनेक लोगों ने इस अनेकांतवाद में जो स्यात् शब्द प्रयुक्त हुआ है उसके कारण उसे संशय कहकर उसका विरोध भी किया है। लेकिन एक बात सर्वथा सत्य है कि जबतक किसी वस्तु के पूर्ण सत्य के ज्ञान हेतु इस अनेकांत का प्रयोग नहीं किया जायेगा तबतक उसके पूर्ण सत्य को नहीं जाना जा सकेगा। स्वयंभू स्तोत्र में इसकी पुष्टि करते हुए कहा गया है कि "वास्तव में यह वस्तु तत्व का भेद - अभेद ज्ञान का विषय है और अनेक तथा एकरूप है। भेदज्ञान से अनेक और अभेदज्ञान से एक है। ऐसा भेदाभेद ग्राह्यज्ञान ही सत्य है। जो एक को ही सत्य मानकर दूसरे को नहीं मानते हैं वे मिथ्यात्व होते हैं। क्योंकि दोनों धर्मों में से एक का अभाव मानने पर दूसरे का अभाव हो जाता है, और दोनों का अभाव हो जाने पर वह निःस्वभाव हो जाता है।" इसे यों समझाया गया है- यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय अस्त को प्राप्त नहीं हो सकती, और जो सर्वथा असत् है उसका जन्म नहीं होता। जो सत् है उसका नाश नहीं होता। हमें * प्रधान सम्पादक, तीर्थंकर वाणी, अहमदाबाद। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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