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जैनधर्म सम्मत अहिंसा का प्रशिक्षण
प्रो. डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु'*
'अहिंसा परमोधर्मः' अहिंसा को परम धर्म घोषित करने वाली यह सूक्ति आज भी बह प्रचलित है। यह तो एक स्वीकृत तथ्य है कि अहिंसा परम धर्म है, पर प्रश्न यह है कि अहिंसा क्या है? साधारण भाषा में अहिंसा शब्द का अर्थ होता है- हिंसा न करना, किन्तु जब भी हिंसा-अहिंसा की चर्चा चलती है, तो हमारा ध्यान प्रायः दूसरे जीवों को मारना, सताना या उनकी रक्षा करना आदि की ओर ही जाता है। हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध प्रायः दूसरों से ही जोड़ा जाता है। दूसरों की हिंसा मत करो, बस यही अहिंसा है, ऐसा ही सर्वाधिक विश्वास है; किन्तु यह एकांगी दृष्टिकोण है।
'अपनी भी हिंसा होती है'- (पुरुषार्थ सि., पद्य-42), इस ओर बहुत कम लोगों को ध्यान जाता है। जिनका ध्यान जाता भी है तो वे भी आत्महिंसा का अर्थ केवल विष-भक्षणादि द्वारा आत्मघात (आत्महत्या)ही मानते हैं। उसकी गहराई तक पहुंचने का
। नहीं किया जाता है। अन्तरंग में राग-द्वेष-मोह की उत्पत्ति होना भी हिंसा है. यह बहुत कम लोग जानते हैं।
प्रसिद्ध जैनाचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने अन्तरंग पक्ष को लक्ष्य में रखते हुए 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ में हिंसा-अहिंसा की निम्नलिखित परिभाषा दी है:
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।
तेषामेवोत्पत्ति-हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।। 44 ।। आत्मा में राग-द्वेष-मोहादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और इन भावों का आत्मा में उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा है। यही जैनागम का सार है।
प्रश्न है क्या अहिंसा का प्रशिक्षण सम्भव है? इस प्रश्न का उत्तर 'सत्यता के प्रमाणीकरण प्रयोग' से सम्भव है। प्रत्येक सिद्धान्त तभी मान्य होता है जब वह प्रयोगों में खरा उतरे। धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है और जीवन है धर्म की प्रयोगशाला। तीर्थकर भगवान महावीर ने धर्म की परिभाषा रटी नहीं थी। उसका सही रूप समझकर, अनुभव कर प्रयोग किया था।
शाश्वत सुख अर्थात् मुक्ति के जिस मार्ग पर वे स्वयं चले वही उन्होंने सारे जगत * डायरेक्टर, संस्कृत, प्राकृत और जैन अनुसन्धान केन्द्र, 28, सरस्वती नगर, दमोह (म.प्र.) - 470661.
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