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ज्ञाताधर्म कथा में वर्णित बौद्धिक दृष्टि
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धकेलना है। इसकी प्रथम बौद्धिक दृष्टि निरंकुश एवं स्वच्छन्द भावना के दुष्परिणाम को समझना है तथा द्वितीय बौद्ध दृष्टि निरासक्तभाव से खान-पान है। इसी कारण सार्थवाह के पुत्रों ने सुसुमा का रुधिर पान करने पर भी वे अपने मुक्ति के लक्ष्य पर पहुँच सके। साधक के मन में भी आहार के प्रति अणमात्र भी आसक्ति नहीं रहनी चाहिए। वे जम्बू जैसे उस धन्य सार्थवाह ने वर्ण, रूप, बल और विषय के लिए सुंसुमा दारिका के रुधिर और मांस आहार नहीं किया था केवल राजगृह नगर को पाने के लिए ही आहार किया था।
__ इसी प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणों हमारा जो साधु या साध्वी वमन, पित्त, शुक्र, शोणित को मारने वाले यावत् अवश्य ही त्यागने योग्य इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए आहार नहीं करते हैं। केवल सिद्ध गति को प्राप्त करने के लिए आहार करते हैं, वे इसी भव में बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों 3 बहत श्राविकाओं के अर्चनीय होते हैं एवं संसार कान्तार को पार करते हैं। इस प्रकार अनासत्ति की बौद्धिक दृष्टि संसार सागर को पार करा सकती है। इस बात को समझाया गया है। पुण्डरीक अध्ययन की बौद्धि दृष्टि:- इस अध्ययन में इन्द्रिय विषय लोलुपता एवं आसक्तिजन्य भाव की बौद्धिक दृष्टि है, जो इनके दुष्परिणाम को समझ लेता है वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है जैसा कि पुंडरीक ने इसे समझाया और कंडरीक दीक्षित होने के बाद भी पुनः इन्द्रिय विषयों में लोलुप होकर भोग भोगने लगा और मरकर नरकलोक में गया और पुण्डरीक मुक्ति की ओर अग्रसर हुआ जैसा कि अध्याय में वर्णित है:- पुण्डरीक राजा धाय माता की बात सुनकर संभ्रान्त हो उठा। उठकर अन्तःपुर के परिवार के साथ अशोकवाटिका में गया। जाकर कण्डरीक को तीन बार इस प्रकार कहा - देवानुप्रिय! तुम धन्य हो कि यावत् दीक्षित हो। मैं अधन्य हूँ कि यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं होता। अतएव देवानुप्रिय तुम धन्य हो तुमने मानवीय जन्म और जीवन का सुन्दर फल पाया है। फिर भी कंडरीक चुप रहा। दूसरी बार और तीसरी बार कहने पर भी मौन रहा। तब पुंडरीक राजा ने कंडरीक से पूछा-भगवान क्या भोगों से प्रयोजन है? अर्थात् क्या भोग भोगने की इच्छा है? तब पुंडरीक ने कहा हाँ प्रयोजन है। उनका राज्याभिषेक किया गया और स्वयं पुंडरीक महातपस्वी हो गया। इसी इन्द्रिय विषय की लोलुपा की बौद्धिक दृष्टि को नहीं समझने के कारण उग्र कष्ट भोगते हुए पुंडरीक नरक गामी हुआ और पुंडरीक को समझा और अपना आत्मकल्याण किया।
इस प्रकार ज्ञाताधर्म के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि सम्पूर्ण अध्ययन में अनासक्त भावना, अहिंसा, सद्गुरू का समागम, सम्यक् दृष्टि, सत्तत्व, मान-सम्मान की आसक्ति, क्रूरता, सत्तालोलुपता, संयम आदि बौद्धिक दृष्टियों को समझते हुए अपना कल्याण कर सकता है जिनको दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया है तथा जो प्राणी इन बौद्धिक दृष्टियों को समझा आत्म कल्याण किया। जिसने नहीं समझा उसकी दुर्गति
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