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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
द्रोपदी अध्ययन की बौद्धिक दृष्टि:- इस अध्ययन में प्रथम बौद्धिक दृष्टि संरक्षण एवं जीव संरक्षण का भाव या अहिंसा की बौद्धिक दृष्टि है। द्वितीय बौद्धिक दृष्टि भावात्मक है जैसी आपकी भावना या विचार होंगे वैसी ही कर्म परिणति होगी। जैसे द्रोपदी अपने पूर्वभव में सुकुमारिका पाँच पुरुषों के साथ वेश्या का विलास या रतिक्रीड़ा देखती है उसे
खाभाष होता है तथा संकल्प करती है कि मेरी तपस्या का कोई फल हो तो मैं भी ऐसा ही सुख प्राप्त करूँ। द्रोपदी के रूप में पाँ पति के साथ दिखाई देती है। यही भावना या भावात्मक बौद्धिक दृष्टि है। तृतीय बौद्धिक दृष्टि यह है कि द्रोपदी अपनी रक्षा छः महीने की मोहलत मांगकर अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा कर स्वर्ग प्राप्त करती है। छः महीने की मोहलत मांगकर शीलव्रत धर्म की रक्षा करने के दृष्टान्त अन्य कई कथा ग्रन्थोंमें भी मिलते हैं। जीवरक्षा एवं अहिंसा की बौद्ध दृष्टि में कड़वे तुम्बे की शाक् को जमीन पर नहीं डाल कर स्वयं खाकर अपना प्राणान्त कर लेते हैं ताकि अनेक चिंटियों का घात न हो सके तथा नागश्री पाप कर्मों के दुष्परिणाम भी भयंकर होते हैं। मत्स्य आदि योनियों में भटकना पड़ता है। भावात्मक या विचार के अनुसार ही कर्म परिणति में द्रोपदी का पूर्व भव टीका हुआ है। इसमें सुकुमारिका ने देवदेत गणिका पाँच गोष्ठिाक पुरूषों के साथ उच्च कोटि के मनुष्य सम्बन्धी काम भोग भोगते देखा। देखकर उसे इस प्रकार संकल्प उत्पन्न हआ। अहार यह स्त्री पूर्व में आचरण किये गये इस तप. नियम और ब्रह्मचर्य का कछ भी कल्याणकारी फल विशेष हो तो मैं भी आगामी भव में इसी प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगती हुई विचरूँ। उसके इस प्रकार के निदान ने द्रोपदी के भवरूप में जन्म लेना पड़ा। आकीर्ण अध्ययन की बौद्ध दृष्टि:- यहाँ पर आकीर्ण का अर्थ उत्तमजाति का आश्रव है। इस अध्ययन की बौद्धिक दृष्टि इन्द्रिय विषयों से दूर रहना है जो इनसे विमुख रहता है वह वीतराग भाव के कारण सांसारिक यातनाओं से बच जाते हैं तथा जो इसमें लुलोभित रहते हैं जन्म या मरण आदि देवनाओं को सहन करते हुए संसार सागर में भटकते रहते हैं क्योंकि इन्द्रिय विषयों की आसक्ति एवं चंचलता पराधीनता का कारण है तथा संयम अनन्त आत्मिक आनन्द को उपलब्ध करवाता है। अश्वों के उदाहरण में यह बौद्धिक दृष्टि है कि हमारा जो साधु, साध्वी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध में आसक्त नहीं होता वह अश्व की तरह ही। वह इस लोक में बहुत से साधु-साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और चातुर्गतिक संसार कान्तार को पार कर जाता है। इसके विपरीत हमारे निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी दीक्षित होकर प्रिय, शब्द, स्पर्श, रूप, रस में गृद्ध होता है, मुक्त होता है, आसक्त होता है वह इसी लोक में बहुत श्रमणों, श्रमणियों, श्रावक-श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र होता है तथा चातुर्गतिक संसार अटवी में पुनः भ्रमण करता है। जैसे कि गति अश्वों की हुई। सुंसुमा अध्ययन की बौद्धिक दृष्टि:- प्रस्तुत अध्ययन में चिलात के निरंकुश एवं स्वच्छन्दी बताया गया है जिसके कारण ही वह व्यसनी हो जाता है। परिणामस्वरूप चोरी, डकैती आदि का कार्य करना एवं सुसुमा पर प्रीति की भावना से उसे मृत्यु के मुँह में
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