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________________ ज्ञाताधर्म कथा में वर्णित बौद्धिक दृष्टि 131 की प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है या द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं। अतः प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यमय है। भगवान ने अपने शिष्यों को यही मूल (सत्) तत्व सिखाया और यही बौद्धिक दृष्टि है। दर्दुर ज्ञात अध्ययन की बौद्धिक दृष्टि:- इस अध्ययन में व्याधि निदान एवं सद्गुरु के समागम से आतिमक गुणों की वृद्धि होती है एवं आसक्ति अध:पतम का कारण है। आसक्तिजन्य दुष्परिणाम के कारण नंदमणिकार सेठ के शरीर में सोलह रोग उत्पन्न हो गये अर्थात् सारे रोग एक साथ उत्पन्न हो गये। आर्तध्यान के वशीभूत हाकर मृत्यु के समय में काल करके उसी नंदा पुष्करिणी में एक मेढ़क के रूप उत्पन्न हुआ। आसक्ति राग, मोह, आत्मा के अधःपतन का एक कारण यही इस दर्दर ज्ञात की बौद्धिक दृष्टि है। अगर वह पुष्करिणी में इतना आसक्तिजन्य भाव नहीं रखता तो उसकी दुर्गति नहीं होती। पुष्करिणी में जाति स्मरण ज्ञान से ज्ञात हुआ कि मैं नन्दमणिकार सेठ था। भगवान महावीर के सामने 12 व्रत ग्रहण किये थे किन्तु साधुओं के दर्शन एवं सत्गुरू की संगति के अभाव के कारण मैं मिथ्या दृष्टि होकर पुष्करिणी का निर्माण कर मेरी दुर्गति हुई। अगर मैं अपने व्रतों से भ्रष्ट नहीं होता तो मेरी आज यह दुर्दशा नहीं होती यही सद्गुरू का उपदेश की बौद्धिक दृष्टि उसका कल्याण करती है।। तैतलि पुत्र अध्ययन की बौद्धिक दृष्टि:- प्रस्तुत अध्ययन सत्समागम समित्र से सद्गुणों का विकास संभव है। प्रारम्भ में तो कनकरथ राजा सत्तालोलपता करता ने सारे बच्चों को विकलांग कर देता था ताकि वह राज्यासित बना रहे। इस अध्ययन में यह क्रूरता बौद्धिक दृष्टि है। अत्यधिक मान-सम्मान प्राप्त करना घातक है जब तक इससे मुक्त नहीं हो कल्याण संभव नहीं है। इसलिए देव ने उसे अपमानित बताकर तैतलिपुत्र को प्रतिबोधित किया। जब तक उसपर मान-सम्मान का आवरण चढ़ा रहा तब तक कुछ नहीं कर सका। मान-सम्मान आत्मकल्याण में बाधक है। अतः मान-सम्मान करता इसकी बौद्धिक दृष्टि है। नन्दीफल की बौद्धिक दृष्टिः- इस अध्ययन में इन्द्रिय विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) से दूर रहना ही बौद्धिक दृष्टि है। इसी विषय रूपी विष बौद्धिक दृष्टि को समझने-समझाने नंदीफल का उदाहरण दिया गया जिसमें सार्थवाह ने घोषणा करवायी कि आगे एक भयंकर अटवी है। जिसमें नंदीफल नामक विष वृक्ष है। वह दिखने सुन्दर, मनोहर, अत्यन्त मधुर है किन्तु इसके सेवन पाते ही नष्ट हो पायेगा तथा जो इससे दूर रहेगा। वह इस अटवीकर पार कर जायेगा। इसमें कुछ व्यक्तियों इस फल का भक्षण किया और नष्ट हो गये और कुछ इससे दूर रहे। उन्होंने इस संसार सागर को पार पा लिया। इस प्रकार हे आयुष्मान! श्रमणों हमारा निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थी पंचेन्द्रिय काम भोगों में आसक्त नहीं होता वह इसी भव में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और परलोक में भी दु:ख नहीं पाता है। संसाररूपी भयंकर अटवी को पार कर सिद्धि प्राप्त करता है। इसके विपरीत प्रव्रजित होकर पाँचों इन्द्रिय विषयों में आसक्त रहता है वह संसार सागर में भ्रमण करता रहता है। अतः विषय रूपी विष की बौद्धिक दृष्टि है जो इसको समझेगा तभी सिद्धि प्राप्त कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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