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________________ प्राकृत साहित्य में वर्णित वास्तुविज्ञान विप्पे धयाउ दिज्जा खित्ते सीहाउ वइसि वसहाओ । सुद्दे अ कुंजराओ धंखाउ मुणीण नायव्वे ।। अर्थात् ब्राह्मण के घर में ध्वज आय, क्षत्रिय के घर में सिंह-आय, वैश्य के घर में वृषभ-आय, शूद्र के घर में गज आय और मुनि संन्यासी के आश्रम में ध्वंक्ष आय होना चाहिए। 125 तमिलनाडु के निर्मित मन्दिर तमिलनाडु में प्रस्तर निर्मित जैन मन्दिरों का क्रम पल्लव शैली के मन्दिरों से प्रारम्भ होता है। उदाहरणार्थ, कांचीपुरम् के उपनगर तिरूप्परूत्तिक्कुरणम् अथवा जिन-कांची के जैन मन्दिर समूह में से एक चन्द्रप्रभ - मन्दिर है, जो आज भी जैनधर्म का लोकप्रिय केन्द्र है। विशाल प्राकार के भीतर चार बड़े मन्दिरों तथा तीन लघु मन्दिरों में यह मन्दिर नितान्त उत्तरवर्ती संरचना है। यह तीन तल का चौकोर विमान मन्दिर है, जिसके सामने मुख-मण्डप है। तीनों तलों में सबसे नीचे का तल ठोस है जो मध्य तल के लिए चौकी का काम देता है, जिस पर मुख्य मन्दिर है। यह तत्कालीन जैन मन्दिरों का प्रचलित रूप है । इस मन्दिर की भूमि स्थानीय भूरे रंग के बलुए पत्थर की बनी है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि पल्लव नरेश राजसिंह द्वारा निर्मित अन्य मन्दिर हैं। राजसिंह की राजधानी कांची में अधिष्ठान की गोटों के लिए ग्रेनाइट पत्थर को उपयोग में लाया गया है। राजसिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों द्वारा निर्मित मन्दिरों का यह एक विशेष लक्षण है। मन्दिर की बाहरी भित्ति पर व्यालाधारित स्तम्भों का अंकन है और उनके मध्य उथले देवकोष्ठ उत्कीर्णित हैं। देवकोष्ठों के ऊपर मकर-तोरण बने हुए हैं। सभी देवकोष्ठ रिक्त है। प्रथम तल पर हार, कानों पर चौकोर कर्णकूट और उनके बीच में आयताकार भद्रशालाएं निर्मित हैं। Jain Education International मध्य तल नीचे की अपेक्षा कम चौकोर है और उसके चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ है। इसकी बाहरी भित्ति पर बलुए पत्थर के भित्ति स्तम्भ हैं। भित्तियाँ ईंटों की हैं और उन्हें बलुए पत्थर के भित्ति स्तम्भों से जोड़ा गया है। शीर्षभाग में लघु देवकोष्ठ पंक्तिवद्ध अंकित हैं। इन लघु देवकोष्ठों की प्रमुख विशेषता, उनके अग्रभाग में अंकित तीर्थंकरों और अन्य देवताओं की प्रतिमाएं हैं। लघु देवकोष्ठों के द्वार के पीछे तीसरे तल की उठान कम है, जिसमें चतुर्भुज सपाट भित्ति-स्तम्भ हैं और चबूतरे पर चार उकडूं बैठे हुए सिंह हैं। इस तल के ऊपर चौकोर ग्रीवा है, जिसके ऊपर चौकोर शिखर और उसके रूपी स्तूप हैं। शिखर के चारों ओर तीर्थंकर - मूर्त्तियां हैं। मध्य तल का गर्भगृह चन्द्रप्रभ को समर्पित है। इस गर्भगृह में प्रवेश नीचे के ठोस तल में बनाई गई दो सीढ़ियों के द्वारा किया जाता है। समग्र दृष्टि से यह मन्दिर आठवीं शताब्दी का निर्मित है। इस गर्भगृह में प्रवेश नीचे के ठोस तल में बनाई दो सीढ़ियों के द्वारा किया जाता है। समग्र दृष्टि से यह मन्दिर आठवीं शताब्दी का निर्मित माना जा सकता है, यद्यपि इसका ऊपरी भाग विजयनगर - शासनकाल में ईंटों द्वारा पुनर्निमित किया गया प्रतीत होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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