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________________ 122 जन्म, अभिषेक, परिचर्या और मंत्रणा के लिए अलग-अलग शालाएं होती हैं। उनमें सामान्यगृह, दर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, नादगृह, लतागृह आदि होते हैं तथा तोरण, प्राकार, पुष्करिणी, वापी और कूप, मत्तवारण और गवाक्ष ध्वजा-पताकाओं एवं नाना प्रकार की पुत्तलियों से सुसज्जित होते हैं। स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ इस प्रकार यतिवृषभाचार्य ने वास्तु के आदर्श प्रस्तुत किए हैं। प्राकृत साहित्य में वर्णित वास्तु विन्यास के आधार - आदर्श के रूप में 'तिल्लोयपण्णत्ती' की उपयोगिता संदिग्ध नहीं है। यह महत्वपूर्ण कृति भारतीय इतिहास के स्वर्णकाल की अवधि चतुर्थपंचम शती में लिखी गई है, बहुत सम्भव है कि 'संघदासगणी' ने भी अपने वास्तुवर्णन के प्रसंगों में 'तिलोयपण्णत्ति' का प्रभाव ग्रहण किया हो? वास्तु-सिद्धांत के अनुसार गृह की दीवारों पर चित्रकारी करते समय गिद्धपक्षी, काक, कबूतर, बन्दर और संग्राम सम्बन्धी चित्र नहीं बनाने चाहिए, क्योंकि ये अशुभ फलप्रद होते हैं। इसी प्रकार राजभवन को छोड़कर भवन शोभा हेतु हाथी, सिंह आदि जंगल में रहने वाले पशुओं एवं पक्षियों की मूर्तियाँ गृहस्थों को अपने घरों अथवा दरवाजों पर नहीं बनवानी चाहिए। क्योंकि ये सभी बहुत अशुभ फल देने वाली होती हैं। नाट्यशाला राजप्रश्नीयसूत्र के वर्णन के अनुसार नाट्यशाला ( प्रेक्षागृहमण्डप) अनेक स्तम्भों के ऊपर बनाई जाती है, जो वेदी, तोरण और शालभंजिकाओं (पुत्तलिकाओं) से शोभित रहती थी। इसमें एक से एक सुन्दर वैडूर्यरत्न जड़े हुए थे और पूर्वोक्त ईहामृग, वृषभ आदि के चित्र निर्मित किये जाते थे। यहां पर सुवर्ण और रत्नमय अनेक स्तूप तथा रंग बिरंगी घंटियों और पताकाओं से उनके शिखर शोभायमान थे। विद्याधर- युगल भी बने रहते थे जो यंत्र की सहायता से चलते फिरते रहते थे। मण्डप को लीपपोत कर साफ-सुथरा बनाया जाता था। प्रेक्षमंडल - इसके मध्य में एक नाट्यगृह ( पेक्खाडगिह) रहता था, जो मणिपीठिका से अलंकृत रहता था। मणिपीठिका के ऊपर मणियों से जटित एक सुन्दर सिंहासन बनाया गया था जो चक्र चक्कल सिंहपाद पादशीर्षक, गात्र और सन्धियों से सुशोभित था। यहां के सुन्दर सुन्दर सोपान; उत्तरण, णिम्मद्ध प्रतिष्ठान; मूलप्रदेश, स्तम्भ, फल, सूची, सन्धि अवलम्बन और अवलम्बनवाहू से सुशोभित थे। शयनागार प्राचीन प्राकृत साहित्य के अनुसार राजा श्रेणिक की रानी धारिणी का शयनगृह, वरगृह तथा बाह्यद्वार के चौकठे, छक्कट्ठग से अलंकृत थे और उसके पालिश किए हुए खम्भों पर सुन्दर पुत्तिलिकाएं, शालभंजिकाएं, स्तूपिकाएं, सर्वोच्च शिखर, विडंक, बिटंक कपोतपाली, कबूतरों के रहने की छतरी, गवाक्ष (जाल) अर्धचन्द्र के आकार वाले सोपान, खूंटी, (गिज्जूह), झरोखे (कणयालि) और अट्टालिका ( चेदसालिया) निर्मित थी। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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