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________________ प्राकृत साहित्य में वर्णित वास्तुविज्ञान 121 के लिए भूमि अंशों का विभाजन एवं वितरण निर्माताओं की वृत्ति के अनुरूप होना चाहिए। संयोग से आधुनिक काल के वास्तु का निर्माण परम्पराधृत न होकर निर्माताओं की रुचि और प्रवृत्ति के अनुसार ही हो रहा है। वास्तु साहित्य में वास्तु के समीप पेड़ लगाने का भी विधान प्राप्त होता है। उसके समीप कण्टकमय वृक्ष लगाने से शत्रुभय, क्षीरीवृक्ष से अर्थनाश और फलीवृक्ष से प्रजाक्षय होता है। इन सब की लकड़िओं का उपयोग भी गृह निर्माण में नहीं करना चाहिए। यदि इन वृक्षों को लगाकर भी उनको काटने की इच्छा न हो तो उनके दोष परिहार के लिए उन वृक्षों के निकट पुन्नाग, अशोक, अरिष्ट, बकुल, पनस, शमी और शालवृक्ष लगा देना चाहिए। वास्तु-मण्डल में कौन-सी वस्तु किस दिशा में रहना चाहिए इसका भी निर्देश प्राचीन वास्तुकारों ने किया है। वास्तु के सम्मुख देवालय, पूर्व में प्रवेश-निर्गम और यज्ञमण्डप, अग्निकोण में पाकशाला, दक्षिण की ओर अतिथिशाला, नैऋत्य में शास्त्रागार, कुश काष्ठादि संग्रह, पश्चिम में वातायन युक्त जनागार, वायुकोण में गोशाला, (कुबेर) उत्तर दिशा में भण्डारगृह और ईशान कोण में गन्धपुष्पालय होना चाहिए। जैन मान्यता के अनुसार वास्तु कला करणानुयोग का विषय है। यतिवृषभाचार्य रचित 'तिलोयपण्णत्ती' के नौ अधिकारों में वर्णित नौ लोकों - सामान्य लोक, नरक लोक, भवनवासी लोक, मनुष्य लोक, तिर्यग्-लोक, ज्योतिर्लोक-देव-लोक और सिद्ध-लोक का वर्णन मिलता है। तृतीय अधिकार की गाथा 22 से 62 तक असुर कुमार आदि देवों के भवनों, वेदिकाओं, कूटों, जिन-मन्दिरों एवं प्रासादों का वर्णन उपलब्ध है। भवन की वास्तु संरचना में बताया गया है कि प्रत्येक भवन को चारों दिशाओं में चार वेदियाँ होती हैं, जिनके बाह्य भाग में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम वृक्षों के उपवन रहते हैं। इन उपवनों में चैत्यवृक्ष स्थित होते हैं, जिनकी चारों दिशाओं में तोरण, आठ महामंगल द्रव्य और मानस्तम्भ सहित जिन प्रतिमाएं विराजमान रहती हैं। वेदियों के मध्य में वेत्रासन के आकार वाले महाकुट होते हैं और प्रत्येक कूट में चार-चार गोपुर होते हैं। इन कोटों के बीच की वीथियों में एक-एक मानस्तम्भ, नौ-नौ स्पूत वन, ध्वजाएं और चैत्य स्थित होते हैं। जिनालयों के चारों ओर के उपवनों में तीन-तीन मेखलाओं से युक्त वापिकाएं होती हैं। उनके शिखरानों के ऊपर फहराने वाली ध्वजाएं दो प्रकार की होती हैं - 'महाध्वजा' और 'क्षुद्रध्वजा'। महाध्वजाओं में सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस एवं चक्र के चिन्ह अंकित होते हैं। जिनालयों में वन्दना, अभिषेक, नृत्य, संगीत और आलोक इनके लिए अलग-अलग मण्डप होते हैं, क्रीड़ागृह, स्वास्थ्यशाला, पट्टशालाएं, चित्रशाला भी निर्मित रहती हैं। जिन मन्दिर में जिनेन्द्र की मूर्तियों के अतिरिक्त श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा यक्षों की मूर्तियाँ एवं अष्टमंगल द्रव्य-झारी, कलश, दर्पण, ध्वज, चमर, छत्र, व्यंजन और सुप्रतिष्ठ भी स्थापित होते हैं। जिन प्रतिमाओं के आसपास नागों और यक्षों के युगल अपने हाथों में चमर लिए हुए स्थित रहते हैं। असुरों के भवन सात, आठ, नौ आदि भूमियों से युक्त होते हैं, जिनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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