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________________ 120 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने उचित ही लिखा है कि "आगम साहित्य प्राकृत कथा साहित्य की गंगोत्री है।" __उक्त ग्रंथ में वास्तुशास्त्र का विस्तृत वर्णन है, जिसका वैज्ञानिक परिचय देते हुए विशेषज्ञों ने स्थापत्यशास्त्र, शिल्पशास्त्र और चित्रशास्त्र की दृष्टि से उसके मुख्यः तीन भेद बताए हैं। भवन निर्माण, प्रतिमा-निर्माण तथा चित्रकर्म विधान ये तीन वास्तु शास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं। इस प्रकार वास्तुशास्त्र का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। यह शास्त्र शिल्पशास्त्र का भी प्रतिनिधि है। इसलिए वस्त्रों और अलंकारों की निर्माण कला भी वास्तु शास्त्र में ही अन्तर्भूत है। संघदासगणि की वास्तु कल्पना को यदि उनके द्वारा चित्रित वस्त्रों और अलंकारों की कल-रमणीयता को विविध कल्पना से जोड़कर देखा जाय तो उनकी कला भूयिष्ठ कलाकृति 'वसुदेव हिण्डी' वास्तुशास्त्र का उत्तम निदर्शन सिद्ध होती है। इस कला के द्वारा प्रकृति निर्मित जड़ पदार्थों में भी विभिन्न मनोहारी भावों की उत्पत्ति होती है। जिससे देश का मूर्त्तिमान इतिहास प्रकट होता है तथा वहाँ के निवासियों के गुणधर्म, स्वभाव, आचार-विचार और व्यवहारों की वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक जानकारी मिलती है आदिकाल से मौखिक परम्परा से सरक्षित यह कला कालक्रम से वेदसूत्रग्रन्थों, स्मृतियों और पुराणों में समाविष्ट हो गयी। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत में जो विश्वकर्मा का उल्लेख हुआ है वे तत्कालीन स्थापत्य शास्त्र के पूर्णज्ञाता सूत्रधार के रूप में मान्य हैं। वास स्थान को 'वास्तु' कहते हैं, जिनमें प्राणी निवास करते हैं। वास्तु शब्द की उत्पत्ति में कहा गया है "वसन्ति प्राणिनो यत्र सः वास्तु" निवासार्थक वस् धातु के साथ तुण प्रत्यय के योग से वास्तु शब्द निष्पन्न हुआ है। इस वास्तु का आधार घर या भवन अवश्य है, परन्तु भवन निर्माण के अतिरिक्त यह कुछ और भी है। एक वास्तुशास्त्री ने वास्तुकला की ललित कला से तुलना करते हुए बड़ा सटीक ही कहा है, "कविता केवल पद्य रचना ही नहीं है अपितु वह उसके अतिरिक्त कुछ और भी है।" मधुर स्वर में गाए जाने पर वह और भी अधिक प्रभावशाली हो जाती है। उसके साथ जब उपयुक्त संगीत और सारे वातावरण से भी उसे अवगत करा देती है। ठीक इसी प्रकार वास्त कल्पना दार्शनिक गतिविधियों, काव्यमय अभिव्यक्तियों और सम्मिलित लयात्मक, संगीतात्मक एवं वर्णात्मक अर्थों से परिपूर्ण होती है। ऐसी उत्कृष्ट वास्तु कृति मानव के अन्तर्मानस की छूती हुई सभी प्रकार से उसकी प्रशंसा का कारण बनती है फिर वह विश्वव्यापी ख्याति अर्जित करती है, साथ ही वह भावी पीढ़ियों की प्रेरिका भी होती है। कौटिल्य के युग में वास्तु-विज्ञान चरम शिखर पर था। उन्होंने अपने अर्थ शास्त्र 21वें अध्याय में कुशल वास्तु-वैज्ञानिकों का सादर उल्लेख किया है। साथ ही साथ वास्तु सिद्धि के समस्त उपकरणों की विशद् चर्चा भी की है। ग्राम समुदायों और नगरों की रचना, विशेषतः दुर्ग-निर्माण की रूपरेखाओं का स्पष्ट अंकन इस ग्रंथ में हुआ है। कौटिल्य ने वास्तु परिमाण की प्राचीन मान्यता में विकास करके यह नियम बनाया था कि गृह निर्माण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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