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प्राकृत साहित्य में वर्णित वास्तुविज्ञान
डॉ. जयकुमार उपाध्ये*
वर्द्धमान महावीर के प्रथम गणधर द्वारा रचित 'प्रतिक्रमणसूत्र' में पाँच स्थावर एकेन्द्रिय जीवों का उल्लेख किया गया है, जिनके नाम हैं- (1) पुढविकाइया जीवा, (2) आउकाइया जीवा, (3) तेउकाइया जीवा, (4) वाउकाइया जीवा और (5) वाणप्फदिकाइया जीवा, संखेज्जा असंखेज्जाय हैं। पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वास्तु एवं वनस्पति इन पांचों को केवल जीव के रूप में न स्वीकार करते हुए एकेन्द्रिय स्थावर जीव का आयु, श्वासोच्छ्वास शरीर तथा स्पर्शन इन्द्रिय होने का सिद्धांत 2500 वर्ष सिद्ध किया है। इन स्थावर जीवों को संख्यात एवं असंख्यात कहा गया है। और यह सर्वविदित है कि भवन निर्माण विधि में उपरि निर्दिष्ट पांच तत्वों का प्रयोग अनिवार्य है क्योंकि इनके प्रयोग के बिना भवन निर्माण असम्भव है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने 'प्राकृत दशभक्ति' में ईर्यापथ प्रतिक्रमण में चार मुख्य दिशा और उपदिशाओं का सुन्दर विवेचन किया है। 'चउदिसु विदिसासु।
पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर ये चार मुख्य दिशाएं हैं और आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य एवं ईशान ये चार उपदिशाएं हैं। इन सभी में एक-एक मौलिक तत्व उपस्थित हैं जो प्राणी मात्र के जीवन यापन में अत्यंत सहकारी हैं, जिनका प्रयोग वैधानिक दृष्टि से होना ही चाहिए, क्योंकि दिशाविहीन प्रदेश, तत्व विकृत वास्तु चारों पुरुषार्थों की साधना में बाधा डालते हैं। जैसे-पृथ्वी विकार, सलिल प्रकोप, अग्निदाह, चौर प्रयोग, विद्युत्पातादि वायु उपद्रव, वनस्पतिजन्य विकृत विषय प्रयोग द्वारा जीव अपने साधना मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकता। अतः सुसंस्कृत सभ्यतापूर्ण एवं धर्ममय जीवन को पाने के लिए वास्तु एक आवश्यक अंग माना गया है।
आचार्य वीरसेन ने "षट्खण्डागम" ग्रन्थ की धवला टीका में वास्तुविद्या सम्बंधी उद्धरण देते हुए स्पष्ट कहा है कि “वास्तु विजं भूमि-संबंधमण्णं पि सुहासुहकारणं वण्णेदि"
भारतीय प्राच्य विद्या के ऐसे अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें प्राचीन कलाओं का विस्तृत वर्णन है।- "वसुदेवहिण्डी" नामक कथा ग्रन्थ संघदासगणि द्वारा रचित एक प्रसिद्ध प्राकृत कृति है। प्राकृत कथा साहित्य की मूलधारा आगमिक कथाओं से उद्धृत हुई है।
* व्याख्याता, प्राकृतभाषा विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली।
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