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आचार्यश्री सुनीलसागरजी का प्राकृत काव्य साहित्य
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सारगर्भित विवेचन किया है।
प्रस्तुत ग्रंथ के मंगलाचरण में सिद्धों की वंदना के साथ ही ग्रंथ-रचना करने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् एक सुंदर अनुष्टुप अवतरित हुआ है
जेण भावेण जं रूवं, झाणी झायदि तच्चदो।
तेणेव तम्मयं जादि, सोवाहि फलिहो जहा।। अर्थात् जिन भावों से ध्याता जिस रूप को तत्वतः ध्याता है, वह उसी में तन्मय हो जाता है, जैसे कि स्फटिक मणि। वह जिस रंग के संसर्ग में आती है वैसी ही दिखने लग जाती है।
इसके बाद तो एक के बाद एक सुंदर-सुंदर गाथा-सूत्र अवतरित हुए हैं। आचार्यश्री ने अलंकारों का भी खुब प्रयोग किया है। दुष्टांत-अलंकार तो पग-पग पर देखने को मिलता है। स्फटिक प्रयोग आनंददायक बन पड़ा है। आलंकारिक गुंफन दर्शन इसमें वरवश हो जाते हैं। निजात्मा की श्रेष्ठता में
सरीरेण वरं इंदी, इंदिएहिं वरं मणं।
मणसा य वरं बोही, बोहिणा णिय अप्पणो।। -भावणासारो-441 अर्थात शरीर से इन्द्रियां श्रेष्ठ हैं, इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है. मन से बोधि श्रेष्ठ है और बोधि से जिन आत्मा श्रेष्ठ है।
नवरसों में से आचार्यवर ने मूलतः शांत का प्रयोग किया है। किन्तु आवश्यकतानुसार अनायास ही वीर, रौद्र, बीभत्स, करुण, भय और शृंगार रस का भी सुंदर प्रयोग हुआ। कृति में साहित्य की अभिधा, व्यंजना और लक्षणा शक्तियों के दर्शन भी होते हैं। आचार्यवर ने कृति के 72 में से 71 छंदों में अनुष्टुप-छंद का प्रयोग किया है, अंतिम गाहा (आर्या) छंद में है। भावालोयणा-भत्तिसंगहो 2009
भावालोयणा पद्य 25 । प्राचीन शौरसेनी भाषा में लिखी गई भावों की आलोचना है। इसमें अपने दोषों की निंदा-गर्दा करते हुए साधक ने सामायिक व निर्ममत्व की प्रार्थना की है। सामायिक का साधारण अर्थ है आत्म-मिलन। यह जीवात्मा बाहरी पदार्थों में विमोहित होकर स्वयं को भूल गया है। सामायिक से स्व-स्मृति होती है। स्व-स्मृति से स्वकृत दोषों-पापों का बोध होता है और फिर पश्चाताप। पश्चाताप अर्थात् स्वनिंदा, गर्दा/आलोचना। इस आलोचना/पश्चाताप से प्रायश्चित्त जन्मता है। प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि, आत्मशुद्धि से साम्य और साम्य से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।
आचार्य अमितगति के 'द्वात्रिंशतिका (सामायिकपाठ)' की शैली में लिखी गई यह कृति निश्चित ही भव्यजीवों के भावों को भास्वत करने में सहयोगी होगी।
आचार्यश्री ने इन प्राकृत काव्यों के अतिरिक्त आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित सर्वप्राचीन संस्कृत कृति तत्वार्थसूत्र की सन्मतिप्रबोधिनी टीका के साथ सभी 357 सूत्रों का प्राकृत रूपान्तरण किया है। जिससे इसका प्राकृत अर्थात् स्वाभाविक भाषा में भी पाठ किया जा सके। इसे बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर ने अपने पाठयक्रम में सम्मिलित किया है।
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