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आचार्यश्री सुनीलसागरजी का प्राकृत काव्य साहित्य
अर्थात् दान, दया, इच्छा दमन, दर्शन (देवदर्शन), देवपूजा ये दकार जिसके पास रहते हैं वे दुर्गति को नहीं जाते हैं।
थुदीसंगहो
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थुदीसंगहो में उसहजिण त्थुदी, संतिणाह - त्थूदी आदि 17 स्तुतियां हैं, गोम्मटेश अष्टक व वर्द्धमान अष्टक दो अष्टक हैं, एक मंगल पंचक, पंच णमोक्कारो, रत्तिभोयण- चाग-पसंसा, मज्झभावणा इस तरह 23 लघुरचनाओं का गुच्छ है।
जैन श्रमण परंपरा में स्तुति का सातिशय महत्व है, क्योंकि इसके माध्यम से स्तुति करने वाला स्वयं स्तुत्य बन जाता है। यहाँ स्तुतियों की प्राचीन परंपरा है, जिसे आगे बढ़ाते हुए परमपूज्य मुनिश्री सुनीलसागर जी महाराज ने अपनी काव्य-प्रतिभा का विशिष्टता पूर्वक प्रभाव छोड़ते हुए शौरसेनी प्राकृत के विभिन्न सरस छन्दों में विभिन्न स्तुतियों की रचना की है।
यद्यपि प्रसिद्ध गोम्मदेश थुदी - 'विसट्ट कंदोट्ट दलाणुयारं' की कोई सानी नहीं है; किन्तु मालिनी छंद में गोम्मटेश अष्टक भी अनुपम है। इसका प्रथम पद्य इस तरह है
थुदी संगहो, गो. थु. 1।
उसहजिण-सुपुत्तं सुणंदाणेत्त रम्मं, णिव-भरह कणिट्टं अदि-उत्तुंग देहं । पउदणपुर- धीसं साहिमाणी गिरिव्वं, भुवण-मउडरूवं गोम्मटेसं णमामि ।। अर्थात् ऋषभदेव के सुपुत्र, माता सुनंदा की आँखों के रम्य, नृपश्रेष्ठ भरत चक्रवर्ती के छोटे भाई, अति उत्तुंग देहधारी, पोदनपुर के स्वामी, पर्वत के समान स्वाभिमानी तथा तीन लोक के मुकुट स्वरूप गोम्मटेश्वर बाहुबली जिनेन्द्र को मैं नमन करता हूँ।
इसी तरह 'वड्ढमाण थुदी' भी सुन्दर उपजाति छंद में निबद्ध है।
' रति- भोयण- चाग-पसंसा' और जन-जन के हृदय में स्थित पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' द्वारा रचित मेरी भावना का 'मज्झ भावणा' नाम से प्राकृत भाषा के गाथा छंद में रूपान्तरण किया है, जो मेरी भावना की भांति ही जन-जन का कल्याण करने में समर्थ है।
त्रिभाषा कवि मुनिश्री चूंकि स्वयं शास्त्री व स्नातक हैं, इसलिए उनका साहित्य की विभिन्न धाराओं, विधाओं, व्याकरण और भाषाओं पर अच्छा अधिकार है। प्रस्तुत कृति 'थुदी संगहो' में उन्होंने छंदशास्त्र और वैयाकरणिक सिद्धांतों का ख्याल रखते हुए भी अलंकारों, नवरसों और साहित्य की विभिन्न शक्तियों का समावेश किया है। इसमें विभिन्न छंदों का प्रयोग हुआ है। यथा- उपजाति, इंद्रवजा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थ, बसंततिलका, शिखरणी, गाहा, गाही, उग्गाहा, मालिनी और अनुष्टुप के विविध रूप । प्राकृतों में मूलतः शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग किया गया है।
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शौरसेनी के महाकवि आचार्य कुंदकुंददेव, अपभ्रंश के जोइंदु, पुष्पदंत आदि की दृष्टांत शैली विविध दृष्टान्तों के साथ विविध रूपों में आकर्षक ढंग से एकदम नई वेशभूषा
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