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आचार्यश्री सुनीलसागरजी का प्राकृत काव्य साहित्य
डॉ. महेन्द्र कुमार जैन 'मनुज'*
मध्यप्रदेश के सागर जिलान्तर्गत तिगोड़ा (हीरापुर) नामक ग्राम में 7 अक्टूबर 1977 को जन्में, 20 अप्रैल 1997 को मुनि दीक्षा प्राप्त और 25 जनवरी 2007 को आचार्य पद से विभूषित आचार्यश्री सुनीलसागर जी महाराज द्वारा अल्पकाल में 26 ग्रन्थों / पुस्तकों का सजन / व्याख्या की गई है। उनमें 6 कृतियाँ प्राकृत में हैं। इन 6 में भी 4 कृतियाँ काव्यात्मक हैं, वे हैं
1. णीदी संगहो, 2003 2. थुदीसंगहो, 2006 3. अज्झप्पसारो, 2007 4. भावणासारो, 2007
5. भावालोयणा-भत्तिसंगहो, 2009 णीदी संगहो
णीदी संगहो. में धम्म-णीदी गाथा 60 और लोग-णीदी गाथा 101 हैं। तथा अंत में कुछ स्तुतियाँ संगृहीत हैं। इसमें धर्म और नीति से संबंधित पद्य हैं। लेखक ने स्वयं लिखा है कि इसमें सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ चाणक्य की कई नीतियाँ तो केवल रूपान्तरित हैं, कई जैनाचार्यों के वाक्यांश भी इसमें लिये गये हैं। किन्तु यह सभी समाज द्वारा समादरणीय व ग्राह्य होने के कारण इसे एस.डी. जैन संस्कृत कॉलेज, जयपुर ने अपने यहाँ पाठयक्रम में सम्मिलित कर लिया है। धर्मनीति की प्रसिद्ध सूक्ति 'यतो धर्मस्ततो जयः' इस पद्य में समाहित है
रावणो खयराहीसो, रामो य भूमिगोयरो।
विजिदो सो वि रामेण, जदो धम्मो तदो जओ।। - णीदी, धर्मनीति-421 अर्थात् रावण विद्याधर राजाओं का स्वामी था और राम भूमिगोचरी थे। फिर भी वह राम के द्वारा जीत लिया गया। क्योंकि जहाँ धर्म होता है वहीं जय होती है। लोकनीति के पद्य में आलंकारिक गुंफन दृष्टव्य है
दाणं दया दमिक्खाणं, दंसणं देवपूयणं।
दकारा जस्स विज्जंते, गच्छंते ते ण दुग्गदिं।। - णीदी, लोकनीति-141 * 22/2, रामगंज, जिन्सी, इन्दौर - 452 006.
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