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________________ 106 प्राकृतबद्ध होते थे । संभवतः संस्कृत - ज्ञान के अभाव के कारण स्त्रियाँ प्राकृत बोलने के लिए बाध्य जान पड़ती हैं। इसकी पूरी संभावना है कि शिक्षाहीनता उन्हें निचली श्रेणी में ले आई थी। शुद्रक के 'मृच्छकटिकम्' में उनके संस्कृत - उच्चारण को हास्यास्पद ज्ञापित किया गया है। वहाँ 'सू-सू' की ध्वनि का निस्सरण करनेवाली नाथी गयी गाय से संस्कृतभाषिणी स्त्रियाँ उपमित हुई है । यों तो ये संदर्भ वर्गभेद एवं लिंगभेद से सम्बन्ध असमानता के द्योतक जान पड़ते हैं, किन्तु स्मरणीय है कि संस्कृत नाट्यालोचन में उत्तमवर्गीय जनों के भाषिक 'व्यक्तिक्रम' को भी स्वीकार किया गया है । वहाँ तपस्वियों, राजपुत्रों और आपत्तिग्रस्त राजाओं-जैसे उच्चवर्गीय लोगों को प्राकृतभाषी दर्शित किया गया है तथा प्रसङ्गात् संस्कृतभाषिणी अग्रमहिषियों, मंत्रियों की पुत्रियों एवं वेश्याओं की चर्चा की गई है " | मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, दाक्षिणात्या, वालीका, चाण्डाली, शाबरी, शकारी, आभीरी, द्राविड़ी आदि की नाट्यशास्त्रगत चर्चा" से संस्कृत नाटकों में अनेक रूपात्मक प्राकृत की विद्यमानता ही नहीं, तत्कालीन जीवन की वास्तविकता का भी परिज्ञान होता है। भरत का उक्त भाषिक विधान पात्रों के सामाजिक, भौगोलिक और मनोवैज्ञानिक यथार्थ पर अवलम्बित है। इसे उच्चता की ग्रन्थि और ब्राह्मणवादी मानसिकता का प्रतिफलन नहीं कहा जा सकता है। यहाँ वस्तुतः शास्त्रकार की देशकालगत पृष्ठभूमि विषयक अभिज्ञता व्यंजित हुई है। प्राकृत का प्रकृत या नैसर्गिक जीवन से सम्बन्ध माना गया है। यह मानव-प्रकृति की स्वाभाविकता को मूर्त करती है। इसे कभी-कभी संस्कृत की पहले की भाषा के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। 2 । रूद्रट के 'काव्यालङ्कार 3 के टीकाकार नमि साधु की दृष्टि में यह वस्तुतः लोक भाषा है। इसे व्याकरण के सम्बन्धों से रहित, बच्चों एवं स्त्रियों के लिए बोधगम्य और सब भाषाओं की नींव कहने का यही मर्म है | 4 | स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ उपर्युक्त तथ्य को देखते हुए संस्कृत-नाट्य - साहित्य एवं प्राकृत की ग्राह्यता सार्थक और सांकेतिक जान पड़ती है। वहाँ यह पात्रानुकूल प्राकृतिक भाषा की लक्ष्यपूर्ति की द्योतिका की भांति प्रतिभाषित होती है। निश्चय ही श्रेण्य नाटकों में इसकी उपस्थिति नागर जीवन की कृत्रिमता में सहजता की प्रतिष्ठा करती है। राजकीय रङ्गमंच द्वारा प्राकृत की यह स्वीकृति सुनियोजित है। यह शास्त्र के साथ लोक की सहभागिता को भली-भाँति उदाहृत करती है। भास, कालिदास, शूद्रक, हर्ष, विशाखदत्त, भट्टनारायण, सोमदेव आदि की नाट्य-कृतियों में निहित प्राकृत- अंशों की इसी दृष्टिकोण से परख करने की आवश्यकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उक्त भाषिक प्रयोग प्राकृत के नाट्य-साहित्य के पृष्ठाधार का भी साक्षात्कार कराते हैं। संदर्भ 1. डॉ. ए. बी. कीथ, 'संस्कृत - नाटक', भाषान्तरकार : डॉ. उदयभानु सिंह, मोलीलाल बनारसीदास, दिल्ली - पटना-वाराणसी, प्रथम रूपान्तर, सन् 1965 ई. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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