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कुवलयमाला कहा
स्व. रमा कान्त जैन*
प्राचीन भारतीय कथा साहित्य का एक अनमोल उपहार है 'कुवलयमाला कहा। इसकी रचना आचार्य वीरभद्र के शिष्य उद्योतनसूरि ने जावालिपुर (सोनगिरि की तलहटी में बसा और भिल्लमाल से 33 कि. मी. की दूरी पर स्थित वर्तमान जालौर) के ऋषभ जिनालय में शक संवत् 700 पूरा होने से एक दिन पूर्व चैत्र कृष्ण/14 तदनुसार 21 मार्च, 779 ई. को पूर्ण की थी। उस समय वहां गुर्जर-प्रतिहार राजा वत्सराज रणहस्तिन् राज्य करता था। यह कथा-ग्रन्थ प्राकृत भाषा में गद्य-पद्यमय चम्पू शैली में निबद्ध है। प्राकृत भाषा के तत्समय प्रचलित विविध रूपों के साथ पात्रों की सामाजिक एवं व्यक्तिगत योग्यता के अनुरूप कथनोपकथन में संस्कृत, अपभ्रंश, पैशाची और देशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इस कृति में हुआ है।
धर्म. अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों पर केन्द्रित यह कथाकृति प्रधानतया धर्मकथा है। कथाकार ने प्रस्तुत कथा को 'संकीर्णकथा' या 'मिश्रकथा' नाम दिया है। 283 अधिकारों में अनुस्यूत जन्म-जन्मान्तर की कथा की नायिका कुवलयमाला है और नायक है कुवलयचन्द्र। अन्य प्रमुख पात्रों के रूप में संसार-भ्रमण के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह को रूपांकित कर चंडसोम, मानभट, मायादित्य, लोभदेव और मोहदत्त की कथा कही गई है।
एक धार्मिक सन्त होते हुए भी उद्योतनसूरि की विविध विषयक विद्वत्ता अगाध थी। उन्हें विभिन्न दर्शनों का ज्ञान था और लौकिक कलाओं के वह मर्मज्ञ थे। उनकी एकमात्र उपलब्ध कृति 'कुवलयमाला कहा' उनकी साहित्य सृजन प्रतिभा की द्योतक है। साहित्य मर्मज्ञों ने इसे बाणभट्ट की 'कादम्बरी' के समतुल्य माना है।
सन् 1916 ई. में इस कथाकृति का रत्नप्रभसूरि द्वारा किया गया संस्कृत रूपान्तर प्रकाशित हुआ था। सन् 1959 ई. में भारतीय विद्या भवन, मुम्बई, से डॉ. ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित होकर यह प्रकाशित हुआ। सन् 1965 ई. में इसका गुजराती अनुवाद प्र हुआ। सन् 1975 ई. में डॉ. प्रेम सुमन जैन ने 'कुवलयमाला कहा का सांस्कृतिक अध्ययन' में इस कथाग्रन्थ में समाहित सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों की मनोरंजक झांकियों का विशद विवेचन किया था। 7वीं-8वीं शती ई. में भारत के सामाजिक जीवन के अध्ययन के लिए यह कथा-ग्रन्थ विशेष रूप से उपयोगी है। * ज्योति निकुञ्ज, चारबाग, लखनऊ-226004.
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