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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
में संयुक्त वर्णों का विश्लेषण।
- ज्ञ, ण्य, न्य, ब् में परिवर्तन होना। - य् का ज् में परिवर्तन न होकर सुरक्षित रहना। - अकारान्त शब्दों के प्रथमा एकवचन में ओ हो जाना। - धातु रूपों में समानताएं। - र का परिवर्तन न होकर सुरक्षित रहना। न्य की जगह - राज्ञा से रक्षा, पुण्य से पुञ्ज अन्य से अञ्ज-पालि, मागधी और पैशाची में पाए जाते हैं। - तून प्रत्यय य का ज में परिवर्तन न होकर "ज' बना रहना। डॉ. नलिनाक्ष दत्त ने पालि के पैशाची आधार को सिद्ध करने का प्रयत्न किया
-(अर्ली हिस्ट्री ऑव स्प्रेड ऑफ बुद्धिज्म एण्ड द बुद्धिस्ट स्कूल, लन्दन, 1925 पृ.-256)
भरतसिंह उपाध्याय मानते हैं कि उक्त मत एकांगी है क्योंकि इन प्राकृतों का विकास पालि के बाद हुआ। भले ही पालि मिश्रित साहित्यिक भाषा है, जिसमें अनेक बोलियों के सम्मिश्रण के चिन्ह मिलते हैं। बौद्ध मिश्र संस्कृत एवं प्राकृत
बौद्ध मिश्र संस्कृत भाषा संस्कृत के प्रभाव को कायम रखकर प्राकृत भाषाओं के मिश्रण से बनी है। कछ लोग इसे गाथा संस्कत कहते हैं जो संस्कत एवं पालि की मध्यवर्ती होने के कारण इन दोनों के लक्षणों से आक्रान्त है। वस्तुत बौद्ध संस्कृत ग्रन्थों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन मात्र एडर्सन ने किया है। भारतीय विद्वानों ने इसकी भाषा पर तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया है। बौद्ध मिश्र संस्कृत में प्राकृत भाषा का प्रभाव सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। पिशेल का कहना है कि बौद्ध मिश्र संस्कृत ग्रन्थों की भाषा में अनेक शब्द संस्कृत के हैं अनेक प्राकृत के, प्राकृत के शब्दों में संस्कृत की विभक्ति लगाई गई है। उपसंहार
प्राकृतों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में पिशेल का कहना है कि प्राकृत की उत्पत्ति वैदिक अथवा लौकिक संस्कृत से नहीं, किन्तु वैदिक संस्कृत की उत्पत्ति जिस प्रथम स्तर की प्रादेशिक प्राकृत भाषा से पूर्व में कही गई है उसी से हुई है। यही बात पालि के सन्दर्भ में कही जा सकती है।
- पालि, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं का सौभाग्य यह रहा है कि एक-एक
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