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प्राकृत एवं पालि भाषा का सम्बन्ध
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- आचार्य बुद्धघोष ने 'सहाय निरुत्तिया' पद से 'मागधी' का अर्थ लिया है। "एत्थ सका निरुत्ति नाम सम्मासम्बुद्धेन वुत्तप्पकारो मागधको वोहारो'
- पाली को मागधी न मानने से उसका तात्पर्य था कि पालि अशोक के अभिलेखों की भाषा नहीं है। - डॉ. ई. जे. थामस (पृ. 28) अर्द्धमागधी एवं पालि- समानताएं
- संस्कृत 'अस' और 'अर' के स्थान में 'ए' हो जाता है। पालि में पुरे (पुरः), सुवे (श्वः), भिक्खवे (भिक्षवः) पुरिसकारे (पुरुषकारः), दुक्खे (दुःखं) - संस्कृत तद् के स्थान पर 'से' हो जाना- जैसे- सेय्यथा (तद्यथा) - यद् के स्थान पर 'ये' हो जाना - र् का ल् (कहीं-कहीं)
- स्वरों और अनुनासिक स्वरों में 'एव'-येव अर्द्धमागधी में पालि में भी कहीं-कहीं।
- वर्ण परिवर्तन संस्कृत-साक्षं सक्खि (पालि)
सक्खं (अर्द्धमागधी) त्सरु वेणु लांगल
नंगल लूडर्स इन विशेषताओं के आधार पर अर्द्धमागधी को पालि का आधार मानते हैं। शौरसेनी प्राकृत एवं पालि
शौरसेनी प्राकृत जो व्रजमंडल या मध्यमण्डल की भाषा थी, पालि के नजदीक है। उत्तरकालीन पालि में विशेष सादृश्य है। जो विद्वान पालि का आधार पूर्वी बोली नहीं मानते वे पश्चिम बोली को पालि का आधार मानते हैं। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी मानते हैं कि पालि के ध्वनि समूह और रूपविधान की सर्वाधिक समानताएं शौरसनी के साथ हैं। शौरसेनी में प्रथमा एकवचन का रूप ओकारान्त, पालि में भी है जैसे बुद्धो, नरो आदि।
शकार एवं पकार के स्थान पर सकार जैसे पुरिसो, सद्द
- मध्य में अघोष स्पशों का घोष स्पों में परिवर्तन जैसे माकन्दिक-मागन्दिय, आदि।
- पूर्वकालिक अव्यय में शौरसेनी में दूण प्रत्यय लगता है यथा, पठिदूण। पालि में कातून, निक्खमित्तून आदि तूण प्रत्यय हैं। (पैशाची में भी यह समानता
थरु
थरु वेलु
वेलु
नंगल
इसी तरह पेक्ख, गम्मिस्सति, सक्कति रूपों में समानता है। पैशाची प्राकृत एवं पालि
- घोष स्पर्शों (ग् द् ब्) के स्थान पर अघोष स्पर्श (क् त् प्) - शब्द के मध्य में व्यंजन का सुरक्षित रहना- जैसे भारिय, सिलान कसट शब्दों
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