SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 96 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ तात्पर्य यह कि तीनों लोकों के खगोल, भूगोल, गणित एवं काल की सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं वैज्ञानिक विवेचना का उक्त तिलोयसार ग्रंथ आधुनिक वैज्ञानिक संदर्भो में भी अपना विशेष महत्व रखता है। संस्कृत-नाटकों में प्राकृत नाटक मानव के यथार्थ जीवन से सीधा संबंध रखता है। अतः प्राकृत-बोलियों ने संस्कृत-नाटकों को यथार्थ जीवन की ओर मोड़ने की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण कार्य किया है। क्योंकि संस्कृत-नाटक के संविधान के अनुसार संस्कृत, जहां कथानायक राजा, मंत्री, पुरोहित, ब्राह्मण जैसे उच्चवर्गीय सामन्त एवं समद्ध-वर्गों की भाषा है और वे गद्य-पद्य के माध्यम से परस्पर में उसी में वार्तालाप करते हैं, जबकि महिलाएं, निम्नवर्गीय, बच्चे, अशिक्षित या अर्धशिक्षित, सेवक एवं वृद्धजन प्राकृतों का प्रयोग करते हैं। वस्तुतः संस्कृत-नाटकों में प्राकृतों का प्रयोग कर तथा उसका (प्राकृतों का) प्रयोग करने वाले पात्रों का संयोजन कर जहां संस्कृत-नाटककारों ने सामाजिक समरसता का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है, वहीं यह भी सिद्ध कर दिया कि संस्कृत एवं प्राकृत सहोदरा बहिनें हैं। वे एक-दूसरे के विकास में सहभागी हैं न कि विरोधी तथा उनका परस्पर में अविनाभावी संबंध है। महाकवि शूद्रक कृत मृच्छकटिक नाटक इस दृष्टि से उत्तम कोटि का नाटक माना गया है क्योंकि उसमें उच्चवर्गीय एवं निम्नवर्गीय सभी श्रेणियों के पात्रों को सम्मिलित किया गया है। उसमें लगभग 11 प्रकार की प्राकृतों को बोलते पात्र हैं। उसमें धूत-क्रीड़ा, स्तेय-कर्म, सेंधमारी, आदि को समकालीन कला के रूप में चित्रित किया गया है। इसके दर्जनों संस्करणों में से एक प्रो. राइडर (Ryder) द्वारा सम्पादित संस्करण सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ___ भवभूति (7वीं सदी) ने अपने नाटक में शौरसेनी-प्राकृत का प्रचुर मात्रा में प्रयोग कर उसे गरिमापूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। महाकवि राजशेखर ने तो संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर अपनी कर्पूरमंजरी में आद्योपान्त प्राकृत का ही प्रयोग किया है। उसकी यह घोषणा बड़ी विचारोत्तेजक बन पड़ी है परुसो सक्कय-बंधो पाउद-बंधो वि होई सुउमारो। पुरिसमहिलाणं जेतिअमिहंतरं तेतिअमिमाण।। (कप्पूर.) अर्थात् संस्कृत-भाषा कर्कश एवं प्राकृत-भाषा सुकुमार होती है। पुरुष और महिला में जितना अन्तर होता है, उतना ही अन्तर संस्कृत एवं प्राकृत में होता है। एतद्विषयक महाकवि हाल-सातवाहन (प्रथम सदी), वाक्पतिराज (आठवीं सदी) एवं जयबल्लभसूरि (13वीं-14 यबल्लभसरि (13वीं-14वीं सदी) की उक्तियां पहले ही बतलाई जा चुकी हैं। तात्पर्य यह कि संस्कृत-नाटकों में प्राकृतों के प्रयोग कर उनके एक पक्षीय-रूप अर्थात् केवल उच्चवर्गों के प्रतिनिधित्व करने वाले रूप तक सीमित न कर उन्हें परिवर्तित कर उनमें प्राकृत-भाषी इतर-वर्गों को भी सम्मिलित कर उन्होंने सामाजिक समरसता का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो सर्वथा सराहनीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy