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________________ प्राकृत-भाषा की प्राचीनता एवं सार्वजनीनता 95 रत्न-पाषाण, धातुत्पत्ति, दव्यादि-परीक्षा, भूमि-परीक्षा संबंधी प्राकृत साहित्य बहुमूल्य पाषाण एवं धातुद्रव्य आदि के परीक्षण की दृष्टि से पं. ठक्कुर फेरु (14वीं सदी) का प्रमुख स्थान है, जिन्होंने 132 गाथा-प्रमाण रत्नपरीक्षा नामक अपनी रचना में रत्नों का उत्पत्ति-स्थल, उसकी जाति और उसके महत्व आदि की चर्चा की है। उन्होंने अपनी द्रव्य-परीक्षा नाम की 149 गाथा-प्रमाण रचना में समकालीन प्रचलित राजकीय मुद्राओं की निर्माण-विधि, उनके नाम एवं मूल्य की चर्चा की है। इसी प्रकार अपनी 57 गाथा-प्रमाण धातूत्पत्ति नामक रचना में उन्होंने तांबा, पीतल, रांगा, सीसा, कांसा, पारा, हिंगुलक, सिंदुर, कर्पूर, चन्दन की उत्पत्ति-विधि का निरूपण किया है। इनकी एक अन्य रचना वास्तुसार भी है, जिसमें उन्होंने भवन-निर्माण हेतु भमि-परीक्षण, भूमि-लक्षण आदि का सन्दर विवेचन किया है। इस ग्रंथ का जया भगवानदास जी ने सम्पादन एवं गुजराती अनुवाद कर उसे सन् 1948 में प्रकाशित कराया था। गणित-विद्या ज्योतिष-विद्या के समान ही प्राकृत के आचार्यों ने गणितीय-सिद्धान्तों का भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन कर गणित-जगत् को आश्चर्यचकित किया है। इस विधा पर इतना अधिक साहित्य लिखा गया कि जैन-परम्परा के वर्गीकृत साहित्य में उसे गणि-विज्जा अर्थात् गणित-विद्या के नाम से ही अभिहित कर दिया गया। उसकी पारिभाषिक शब्दावली भी मौलिक एवं नवीन है। उदाहरणार्थ- संख्यात, असंख्यात और अनन्त, असंख्यात के भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात,संख्यातासंख्यात तथा इनके भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। इसी प्रकार अनन्त, उसके भी विविध भेद-प्रभेद, धारा, संख्या एवं उनके भी अनेकविध भेद-प्रभेदों के वर्णन किये गये हैं। काल की परिभाषा, उसके भेद-प्रभेद तथा खगोल से उनके संबंध आदि का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। चूंकि यह करणानुयोग का विषय है, अतः तद्विषयक प्राकृत-ग्रंथ-गणि-विज्जा, तिलोयपण्णत्ती, तिलोयसार, गोम्मटसार, लोयसार, आदि ग्रन्थ विशेष महत्वपूर्ण माने गये हैं। सि. चं. नेमिचन्द्राचार्य (10वीं सदी) कृत तिलोयसार में देखिये गणना, संख्या एवं कृति की परिभाषा किस प्रकार प्रस्तुत की गई है एगादीया गणणा बीयादीया हति संखेज्जा। तीयादीणं णियमा कदि त्ति सण्णा मुणेदव्वा।। (गाथा-16) अर्थात एकादिक को गणना. दो आदिक को संख्या एवं तीन आदिक को कति कहा जाता है। एक एवं दो में कृतित्व नहीं होता क्योंकि जिस संख्या के वर्ग में से वर्गमूल को घटाने पर जो शेष बचे, उसका वर्ग करने पर उस संख्या से अधिक जिस राशि की उपलब्धि हो, वही कृति कहलाती है। यह कृतिधर्म तीन आदि की संख्या में ही पाया जाता है। एक के संख्यात्व का निषेध किया गया है क्योंकि एक की गिनती गणना संख्या में नहीं होती क्योंकि एक घट को देखकर "यहां घट है" इसकी प्रतीति तो होती है, किन्तु उसकी संख्या के विषय में ज्ञान नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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