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________________ 3. प्राकृत भाषा की प्राचीनता एवं सार्वजनीनता वसन्तराज ने प्राकृत-संजीवनी टीका तथा महाकवि सदानन्द ने सुबोधिनी जैसी महत्वपूर्ण टीकाएं लिखीं हैं। आचार्य हेमचन्द्र ( 13वीं सदी) कृत सिद्धहेमशब्दानुशासन, जिसे सर्वाधिक व्यवस्थित एवं लोकोपयोगी माना गया है। इसका वर्ण्य विषय चार पादों के कुल 1119 सूत्रों में वर्णित है। 93 उक्त ग्रंथ में क्रमश: शौरसेनी, मागधी, चूलिका-पैशाची एवं अपभ्रंश भाषाओं की विशेष प्रवृत्तियों का निरूपण किया गया है। अपभ्रंश-व्याकरण के नियमों की 119 सूत्रों में चर्चा करते हुए लेखक द्वारा पूर्ववर्त्ती अपभ्रंश-कवियों के अपभ्रंश-दोहों को उद्धृत किया गया है। उनसे लेखक ने अपभ्रंश-नियमों को तो स्पष्ट किया ही, साथ ही उन उद्घृत दोहों को नष्ट होने से भी सुरक्षित कर साहित्य- सुरक्षा का महत्वपूर्ण कार्य किया है। 4. इसके बाद त्रिविक्रमदेव कृत 'प्राकृत शब्दानुशासन" (3 अध्यायों में 1036 सूत्र - प्रमाण), श्रुतसागर कृत औदार्य चिन्तामणि एवं शुभचन्द्र कृत शब्द - चिन्तामणि, लक्ष्मीधर कृत " षड्भाषा- चन्द्रिका" (जो उक्त त्रिविक्रम-व्याकरण की वृत्ति के गूढार्थ को समझने के लिये आवश्यक ग्रंथ माना गया है), सिंहराज ( 15वीं सदी) कृत " प्राकृत रूपान्तर", अप्पय दीक्षित (16वीं सदी) कृत प्राकृत-मणिदीप, मार्कण्डेय ( 15वीं सदी) कृत प्राकृत- सर्वस्व (वर्ण्य विषय कुल 20 पादों में लिखित), रघुनाथ कवि ( 18वीं सदी) कृत शेषकृष्ण कृत प्राकृत- चन्द्रिका नामक व्याकरण-ग्रंथों ने प्राच्य भारतीय विद्या को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। प्राकृत छन्द शास्त्र - साहित्य मानव को मानव के प्रति, किंवा, प्राणिजगत् को संवेदनशील बनाने का प्रमुख साधन संगीतात्मक छंद है। जिस प्रकार किसी भवन के निर्माण के पहले उसकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई आदि का मानचित्र तैयार किया जाता है और उसके अनुरूप निर्माण सामग्री तैयार कर ली जाती है, उसी प्रकार आशा-आकांक्षाओं, अनुराग-विराग, प्राकृतिक सौन्दर्य, काल्पनिक उड़ानों के संतुलन एवं भावनाओं की प्रेषणीयता एवं व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति, एक पीढ़ी से आगामी पीढ़ी और एक युग से दूसरे युग तक बनाने के लिये छंद-पद्धति का आश्रय आवश्यक होता है। मात्रा, वर्ण और यति-नियोजन भावों को स्पन्दित करते हैं। लय द्वारा भावों के आरोह-अवरोह निर्धारित किये जाते हैं। छंदोबद्ध पद्यों में भावों के अतिरेक को बांध कर संक्षेप में भी अधिक कथन की सामर्थ्य होती है। तथा संगीतात्मक होने से उसे तत्काल कण्ठस्थ कर लेने में भी कठिनाई नहीं होती। यही कारण है कि प्राचीन भारतीय वाङ्मय का प्रारम्भ पद्यमय मिलता है। Jain Education International " अतः छंद - शास्त्र संबंधी साहित्य के निर्माण के क्षेत्र में भी प्राकृत कवियों का योगदान पर्याप्त महत्वपूर्ण रहा है। इस दृष्टि से विरहांक कवि (छठवीं सदी) कृत वृत्त - जाति- समुच्चय अतिमहत्वपूर्ण-ग्रंथ है, जिसका वर्ण्य विषय छः नियमों (अध्यायों) में विभक्त है। प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में प्राकृत के छंद - प्रकार बतलाए गये हैं। तीसरे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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