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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
घग्घरं-जघनस्थ वस्त्रं-(2/107)- राजस्थानी, ब्रज एवं बुन्देली में घांघरा अवअच्छं-अधोवस्त्र (1/25)- अंडरवियर, जांघिया, पेटीकोट पादत्राण-(जूता) अद्धजंघा-पादत्राण (1/33)- एक प्रकार का आधी जंघा तक पहिना जाने वाला जूता।
उक्त सांस्कृतिक सामग्री को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि फैशन के क्षेत्र में हमारा वर्तमान ही बहुत आगे नहीं है, प्राचीन काल में भी एक से एक बढ़कर सुन्दर-सुन्दर साजसज्जा एवं प्रसाधनों की विविध सामग्रियां प्रयोग में थी। अन्तर यही है कि वर्तमान प्रसाधनों की सामग्री उतनी स्वास्थ्यकर नहीं, जितनी कि प्राचीनकालीन
ग्रियां। क्योंकि उनके निर्माण के आधार आयुर्वेदिक-पद्धति तथा शुद्ध जड़ी-बूटियां थी और आज की प्रसाधन सामग्रियां कृत्रिम रासायनिक पदार्थों के मिश्रण से तैयार की जाती
प्राकृत-व्याकरण-ग्रंथ
प्राकृत व्याकरण संबंधी मूल ग्रंथ अभी तक जो उपलब्ध हैं, वे संस्कृत में लिखे हुए मिलते हैं, प्राकृत में नहीं। यही एक आश्चर्य का विषय है। क्योंकि प्राकृत-साहित्य की रचनाएं जब ईस्वी सन् के कुछ समय-पूर्व से ही लेकर परवर्सी कालों में विस्तृत रूप में लिखी जाती रहीं और उसके शब्द-रूप, पद-रूप, वाक्य-गठन आदि के गठन व्याकरण-सम्मत हैं, तब उसे देखकर यही लगता है कि पालि-भाषा के "कच्चायन-व्याकरण" के समान ही प्राकृत-भाषा में लिखित कोई प्राकृत-व्याकरण भी अवश्य रहा होगा क्योंकि आयारंग (द्वि. 4/1 सूत्र 366), ठाणांग (अष्टम) अणुओगदार-सुत्तं, कसायपाहुड, छक्खंडागम आदि में उसके संकेत भी मिलते हैं। इससे लगता है कि प्राकृत-भाषा के विविध नियमों का निर्देशक कोई एक या एकाधिक प्राकृत भाषात्मक व्याकरण-ग्रंथ अवश्य लिखा गया या लिखे गये होंगे, किन्तु दुर्भाग्य से में आज उपलब्ध नहीं हैं। विशेष के लिये देखिये इसी निबन्ध की पृ. सं. 9-10
वर्तमान में संस्कृत-भाषा में लिखे गये प्राकृत-व्याकरण के जो ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे निम्न प्रकार हैं1. वैयाकरण चंड (दूसरी-तीसरी सदी के आसपास) द्वारा लिखित प्राकृत-लक्षण, एक
लघु-रचना, जिसका वर्ण्य-विषय चार पादों में विभक्त और कुल 99 सूत्रों में है। ध्यातव्य है कि इसका सर्वप्रथम सम्पादन जर्मन विद्वान रोडोल्फ हार्नले ने किया तथा सन् 1880 ई. में विवलिओथिका-इंडिका में प्रकाशित कराया गया था। नेपाली हस्तलिपि की एक प्रति मास्को (रूस) में सुरक्षित है। वररुचि (महाकवि कालिदास के समकालीन तथा सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न के रूप में प्रसिद्ध प्राकृत-वैयाकरण) कृत प्राकृत-प्रकाश, इसका वर्ण्य-विषय बारह परिच्छेदों के कुल 509 सूत्रों में वर्णित है। इस ग्रंथ की महत्ता एवं लोकप्रियता इसी से सिद्ध है कि युग की मांग को देखते हुए उसपर महाकवि भामह ने मनोरमा-टीका, महाकवि कात्यायन ने प्राकृत-मंजरी-टीका, महाकवि
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