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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
अभिलेखों में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावलियों का ज्ञान होना अनिवार्य है।
प्राकृत-अभिलेख शिलाओं, स्तम्भों, स्वर्ण, रजत एवं ताम्र-पत्रों, पेटिका-मुखों एवं मूर्ति-लेखों आदि पर उपलब्ध हुए हैं। उनकी संख्या तो शताधिक सम्भावित है किन्तु देश-विदेश के प्राच्य विद्याविदों के पिछले लगभग दो सौ वर्षों के अथक प्रयत्नों से अभी तक छोटे-बड़े सभी मिलाकर लगभग 66 महत्वपूर्ण प्राकृत अभिलेख प्रकाश में आ पाए हैं, जो अखण्ड-भारत के विलोचिस्तान से लेकर भारत के कोने-कोने से प्राप्त हुए हैं।
उनकी भाषा समकालीन प्राकृत है। अखण्ड भारत के विलोचिस्तान एवं उत्तरी पंजाब में जो लेख मिले हैं, उनकी भाषा पैशाची-प्राकृत है तथा लिपि खरोष्ठी है।
इसी प्रकार पश्चिम-भारत एवं मध्य भारत के अभिलेखों की भाषा शौरसेनी-प्राकृत, पूर्वी-भारत के अभिलेखों की भाषा मागधी-प्राकृत, दक्षिण भारतीय अभिलेखों की भाषा मिश्रित महाराष्ट्री एवं मध्यकालीन कन्नड़ हैं। वैसे यह नियम कोई पाषाण-रेखा के समान नहीं है। क्योंकि उसकी प्रचुर-शब्दावली के अनुसार ही उक्त नियम कहा जा सकता है।
प्राकृत-अभिलेख भारत के प्राचीनतम अभिलेख माने गये हैं, जिनका काल ईसा पूर्व पांचवीं सदी से लेकर ईस्वी सन् की पांचवीं सदी के आसपास तक माना जा सकता है। प्राकृत-अभिलेख भले ही सम्भवतः पांचवीं सदी के बाद के न मिलते हों, किन्तु संस्कृत के अभिलेखों के साथ-साथ ब्राह्मी-लिपि अगले लगभग 4-5 सौ वर्षों तक प्रयुक्त होती रही और देवपालकालीन सियदोनी (ललितपुर, यू. पी.) में उपलब्ध वि. सं. 1024 का विस्तृत संस्कृत-शिलालेख नागरी-लिपि का सम्भवतः प्रथम अभिलेख है।
जहां तक लिपि-प्रयोग का प्रश्न है, सीमान्तवर्ती पैशाची प्राकृत वाले अभिलेख खरोष्ठी-लिपि में ही मिले हैं, जबकि उत्तर-भारतीय प्रदेशों में ब्राह्मी-लिपि का प्रयोग किया गया है। यद्यपि पुराविदों ने इसमें भी विभेद किया है- जैसे उत्तर भारतीय ब्राह्मी-लिपि, दक्षिण भारतीय ब्राह्मी-लिपि, मध्य एवं पूर्व-भारतीय ब्राह्मी-लिपि आदि-आदि। उनके अन्तर का वैशिष्ट्य तो पुरालिपिवेत्ता ही बतला सकते हैं किन्तु हमारे अनुभव से उनमें वैसा ही अन्तर होगा, जैसा कि देवनागरी और मराठी, गुजराती, देवनागरी और बंगला, उड़िया या अन्य दक्षिण भारतीय लिपियों में पाया जाता है।
यह विशेषतया ध्यातव्य है कि पैशाची-प्राकत एवं खरोष्ठी-लिपि वाले प्रदेशों में उत्तरी-प्राकृत तथा उत्तर-लिपि वाले तथा उत्तरी-प्राकृतों तथा लिपि-वाले प्रदेशों में पैशाची-प्राकृत एवं खरोष्ठी-लिपि वाले अभिलेख नहीं मिलते।
प्राकृत-अभिलेख केवल जैन-परम्परा से ही संबंधित नहीं हैं, बल्कि उसमें बौद्ध एवं वैदिक-परम्परा से संबंधित सामग्री भी उपलब्ध होती है। वस्तुतः ये अभिलेख किसी सम्प्रदाय-विशेष के नहीं, बल्कि समग्र भारतीय संस्कृति एवं इतिहास की अमूल्य प्रामाणिक धरोहर हैं और उनकी सुरक्षा एवं आदर करना और उनमें समाहित भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं लोकजीवन के आदर्शों की खोज करना भी सभी का समान कर्त्तव्य है।
प्राकृत-भाषा निबद्ध ब्राह्मी-लपि में लिखित कलिंगाधिपति सम्राट खारवेल के 17 पंक्तिवाले अभिलेख के अध्ययन में पुराविदों को लगभग दो सौ वर्ष लग गये, फिर
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