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प्राकृत-भाषा की प्राचीनता एवं सार्वजनीनता
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की सहमति से नायक प्रेमिका के साथ विवाह भी कर लेता है। उसमें खुलकर श्रृंगार-रस का प्राधान्य रहता है।
प्राकृत-जगत् में अभी तक 5 सट्टक उपलब्ध हो सके हैं, जो निम्न प्रकार हैं1. कप्पूरमंजरी (कर्पूरमंजरी), जिसमें उसके लेखक यायावर-वंशीय महाकवि राजशेखर (10वीं सदी) ने राजा चण्डपाल तथा कुन्तल राजकुमारी कर्पूरमंजरी की प्रणय-कथा का चित्रण किया है। उक्त कथानक यद्यपि लघु है और चरित्र-चित्रण भी विशेष नहीं है, फिर भी वह सरस, रोचक एवं मनोरंजक है। उसमें सट्टक के समस्त लक्षण उपलब्ध होते हैं। 2. चंदलेहा (चन्द्रलेखा) सट्टक, जिसमें उसके पारशववंशी (अर्थात् मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण पिता एवं शूद्रा स्त्री से उत्पन्न) महाकवि रुद्रदास (सन् 1660 ई. के लगभग) ने मानवेद एवं चन्द्रलेखा की प्रणयकथा एवं विवाह का वर्णन किया है। उसमें सट्टक के समस्त लक्षण उपलब्ध होते हैं। 3. आणंदसुंदरी (आनन्दसुन्दरी) सट्टक, जिसमें उसके लेखक सर्वभाषाकवि तथा महाराष्ट्र-चूड़ामणि-विरुद-धारी महाकवि घनश्याम (18वीं सदी) ने राजा शिखण्डचन्द्र एवं अंगराज की कन्या आनन्दसुन्दरी की प्रणय-कथा एवं विवाह का वर्णन किया है।
संस्कृत-साहित्य के इतिहास के अनुसार महाकवि घनश्याम ने विविध विषयक 64 ग्रंथ संस्कृत-भाषा में, 20 ग्रंथ प्राकृत-भाषा में तथा 25 रचनाएं देश्य-भाषा में लिखी थीं। आणंदसुन्दरी के अतिरिक्त घनश्याम ने अन्य सट्टक-वैकुण्ठचरित एवं एक अन्य रचना भी लिखी थी किन्तु वे दोनों अनुपलब्ध हैं। (दे. प्रा. सा. इति.-शास्त्री पृ. 423) 4. रंभामंजरी - जिसमें उसके लेखक महाकवि नयचन्द्र (14वीं सदी पूर्वार्द्ध) ने वाराणसी के राजा जैत्रचन्द्र और लाटनरेश देवराज की पौत्री रंभामंजरी के प्रेम-व्यापार का वर्णन कर उनके परस्पर में विवाह करने की चर्चा की है।
प्रस्तुत रचना में सट्टक के सभी लक्षण नहीं मिलते क्योंकि उसमें संस्कृत एवं प्राकृत दोनों भाषाओं के प्रयोग मिलते हैं। इसमें तीन जवनिकाएं ही उपलब्ध हैं। प्रतीत होता है कि इसकी चौथी जवनिका नष्ट हो चुकी है। फिर भी, वर्णन-सौन्दर्य एवं काव्य-कला की दृष्टि से यह रचना उत्तम श्रेणी की है। 5. सिंगारमंजरी शृंगारमंजरी) सट्टक, जिसके लेखक अल्मोड़ा (हिमाचल) निवासी कवि विश्वेश्वर (18वीं सदी का पूर्वार्द्ध) ने राजा राजशेखर एवं अवन्तिराज जटाकेतु की पुत्री शृंगारमंजरी के साथ प्रणय-व्यापार तथा विवाह का वर्णन सरस-शैली में किया है।
साहित्य-दर्पण के एक संदर्भ के अनुसार प्राकृत-सर्वस्व के लेखक सुप्रसिद्ध प्राकृत-वैयाकरण मार्कण्डेय (17वीं सदी) ने भी विलासवती नाम का कोई सट्टक लिखा था किन्तु वर्तमान में वह अनुपलब्ध है। शिलालेखीय साहित्य
अभिलेखों का अध्ययन करना कोई साधारण बात नहीं क्योंकि उनके अध्ययन के लिये प्राकत-संस्कृत एवं कन्नड भाषाओं, स्थानीय बोलियों, स्थानीय स परिवेश, समकालीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का ज्ञान, प्रयुक्त लिपियों का ज्ञान एवं
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