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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
बंके जडे या जड्डे बहु-भोइ कठिण-पीण-थूणंगे।
"अम्पा-तुम्पा" भणि रे अह पेच्छइ मारुए तनो।।153/3 उक्त प्रचुर सामग्री की प्रस्तुति के कारण डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी, प्रो. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, मुनि जिनविजयजी प्रभूति विद्वानों ने उसे ज्ञान-विज्ञान का अमूल्य विश्वकोष की संज्ञा प्रदान की है। सट्टक-साहित्य
प्राच्य भारतीय भाषाओं के विशेषज्ञ महामनीषी प्रो. डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने 'सट्टक' शब्द की उत्पत्ति के विषय में विचार करते हुए लिखा है- "सट्टक शब्द सम्भवतः द्राविड-भाषा का शब्द है। उसके "क" प्रत्यय को हटा देने से उसमें केवल दो शब्द रह जाते हैं।- स और अट्ट अथवा आट्ट। सम्भवतः पूर्व में यह किसी लप्त विशेषण का विशेष्य था। द्राविड-शब्द में अट्ट अथवा आट्टम का अर्थ नृत्य या अभिनय होता है, जो मूल धातु अड्ड या आडु से बना है। जिसका अर्थ नाचना अथवा हाव-भाव दिखलाना होता है। अतः यदि मूल-अर्थ नाचना होगा, तब लुप्त शब्द रूपक होगा। अतएव नृत्य-युक्त नाटकीय प्रदर्शन को सट्ट कहा जायेगा। सट्टक में नृत्य का बाहुल्य रहता है। शारदातनय ने भी नृत्यभेदात्मक रूपक को सट्टक कहा है"।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार सट्टक वह उपरूपक है, जिसमें प्रवेशक एवं विष्कम्भक नहीं होते। उसमें अंक का नाम जवनिका होता है और उनकी संख्या-4 होती है। उसमें अद्भुत-रस का प्राचुर्य होता है और आदि से लेकर अन्त तक प्राकृत-भाषा में ही उसकी रचना की जाती है, जैसा कि महाकवि राजशेखर (10वीं सदी) ने अपनी कर्पूरमंजरी-सट्टक की प्रस्तावना में कहा है
सो सट्टओ त्ति भण्णइ दूरं जो णाडिआइ अणुहरइ।
किं उण एत्थ पवेसअ-विक्कंभाई ण केवलं होति।। (1/6) तात्पर्य यह कि नाटिका में जहां प्रवेशक एवं विष्कम्भक' होते हैं, सट्टक में उनका अभाव होता है। नाटिका में जहां अंक का प्रयोग होता है, वहीं सट्टक में जवनिका का प्रयोग किया जाता है। नाटिका में जहां संस्कृत एवं प्राकृत दोनों के प्रयोग रहते हैं, वहीं सट्टक में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक केवल प्राकृत का ही प्रयोग रहता है।
इनके अतिरिक्त भी सट्टक की कथावस्तु कल्पित रहती है। नायक राजा होता है, जिसपर पटरानी का पूर्ण शासन रहता है। नायक अन्य प्रेमिका से प्रेम करता है, जबकि पटरानी उसमें बाधक बनती है किन्तु अन्त में परिस्थिति ऐसी बन जाती है कि पटरानी
1. किसी अंक के समाप्त होने के बाद अन्य अंक के प्रारम्भ में प्रवेशांक या विष्कम्भक नामकी
भूमिका होती है, जिसमें सामाजिकों के सम्मुख उन घटनाओं का वर्णान किया जाता है, जो उनके सामने रंगमंच पर घटित न होकर नेपथ्य में घटित हुई हैं। यह इसलिये कि वे अगली घटनाओं को अच्छी तरह समझने के योग्य हो सकें।
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