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________________ प्राकृत भाषा की प्राचीनता एवं सार्वजनीनता प्राकृत-साहित्य में कुवलयमाला - कहा एक मात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसे चम्पू- काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है क्योंकि उसमें (1) दृश्यों एवं वस्तुओं के चित्रण में प्रायः गद्य का प्रयोग किया गया है, (2) विभाव, अनुभाव और संचारी भावों का चित्रण प्रायः पद्यों में किया गया है और (3) गद्य एवं पद्य कथानक के सुश्लिष्ट अवयव हैं। दोनों में से किसी एकाध अंश के निकाल देने पर भी कथा - प्रवाह अवरुद्ध होने लगता है (दे. प्रा. भा. और सा. - शास्त्री पृ. 360 ) प्राकृत-साहित्य में चम्पू काव्य-विधा का एकमात्र उपलब्ध उक्त ग्रंथ-कुवलयमालाकहा का प्रणयन हरिभद्रसूरि के शिष्य दाक्षिण्य - चिन्ह विरुदधारी उद्योतन - सूरि ने राजस्थान के जाबालिपुर (वर्तमान जालोर) में वीरभद्रसूरि द्वारा बनवाए हुए ऋषभदेव के चैत्यालय में बैठकर शक् संवत् 700 ( में से एक दिन कम) में किया था। यथा- जाबालिउरे अट्ठावयं एगदिणेणूणेहिं रइया अवरण्हवेलाए । ( कुवलय. पृ. 282 अनु. 430 ) ****** 83 उक्त ग्रंथ के कथानक के अनुसार मध्यदेश स्थित विनीता के राजा दृढ़वर्मा एवं उसकी पट्टरानी प्रियंगुश्यामा निःसन्तान थे। उनका मंत्री सुषेण था। वह रानी को एक अज्ञात कुलोत्पन्न पंचवर्षीय बालक भेंट स्वरूप प्रस्तुत करता है। उसके चातुर्य एवं सौन्दर्य को देखकर वह उसी के सदृश अपने लिये पुत्र प्राप्ति की कामना करती है। भगवती देवी की उपासना के फलस्वरूप उसकी कोख से भी एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न होता है जिसका नाम वह कुवलयचन्द्र रख देती है। Jain Education International ज्ञान-विज्ञान का प्रशिक्षण लेने के बाद कुवलयचन्द्र को अनेक संघर्षों से जूझना पड़ता है किन्तु वह उनसे हार नहीं मानता। किसी कारणवश वह दक्षिण देश की विजयानगरी में पहुंचता है। वहां की राजकुमारी की प्रतिज्ञा थी कि जो कोई भी उसकी समस्या की पूर्ति करेगा, उसी के साथ वह विवाह करेगी। उस राजकुमारी का नाम था कुवलयमाला । कुवलयचन्द्र उसकी समस्या की पूर्ति कर देता है और दोनों का विवाह हो जाता है। प्रस्तुत 13000 गाथा - प्रमाण चम्पूकाव्य में भक्ति, धर्मसमन्वित-कथाएं, काव्यतत्व और दर्शन संबंधी तत्वों का समन्वय होने से कथानक बड़ा ही रोचक बन पड़ा है। इनके अतिरिक्त भी इसमें उपलब्ध समकालीन चित्रकला एवं मूर्तिशिल्प, वास्तु एवं स्थापत्य - विद्या, संगीत - विद्या, ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक जीवन, भारतीय वेशभूषा, वस्त्र- प्रकार, अलंकार-प्रसाधन, राजनैतिक परिस्थितियों एवं अर्थोपार्जन के विविध प्रकारी वाणिज्य एवं उद्योग-धंधे, समुद्री यात्राओं, धातुवाद एवं स्वर्णसिद्धि 18 देशों-प्रान्तों की समकालीन भाषाओं के नमूने तथा उनके प्रयोग करने वालों की पहिचान एवं स्वभाव आदि के संकेत भी इसमें उपलब्ध हैं। मारवाड़ के व्यापारियों की चर्चा करते हुए कवि ने बतलाया है कि मारुक - लोग बांके, शिथिल, जड़बुद्धिवाले, अधिक भोजन करने वाले तथा कठोर और मोटे अंगवाले थे। वे अम्मां अम्मां (अपना-अपना ) तुम्पां-तुम्पां (तुम-तुम ) जैसे शब्दों का उच्चारण करते रहते थे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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