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क्रिया कोश
यह हेतु क्या है और उसका क्या स्वरूप है। इस पर काफी चिन्तन हुआ है। भारतीय दर्शन की खोज का यह इतना महान प्रमुख विषय रहा है कि इस पर लक्षाधिक गाथाएं लिखी गई हैं। भारतीय दर्शनों ने इसे “कर्म" कहा है। “कर्म' शब्द एक ऐसा शब्द है, जो प्रायः सभी आत्मवादी दर्शनों को मान्य है। परिभाषा में अन्तर हो सकता है, परन्तु आत्मा की विभिन्न सांसारिक परिणतियों के लिए सभी दर्शनों ने कर्म को ही निमित्त माना
है।
__यह कर्म अपने आप होता है, आत्मा से स्वयं आकर बंध जाता है । अथवा ईश्वर या अन्य किसी शक्ति द्वारा प्रेरित होकर आत्माओं को दूषित कर देता है । अथवा आत्मा का अपना किया हुआ होता है। कर्म अपनी ही भूल है, जो अपने को तंग करती है। उक्त प्रश्नों पर भारतीय चिन्तन में काफी चर्चा हुई है। कुछ विचारकों ने ऐसा माना है कि आत्मा स्वयं कुछ नहीं कर पाती है, वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं नहीं है। जो कुछ भी होता है, वह ईश्वर के द्वारा होता है। ईश्वर की इच्छा है, वह जैसा चाहता है, वैसा करता है ।' यह विचार भारतीय चिन्तन में प्रस्फुटित तो हुआ है, परन्तु ठीक तरह गति नहीं पकड़ सका। यह केसी बात कि प्राणी के हाथ में कोई सत्ता नहीं। वह निरीह है, दीन है, हीन है, असमर्थ है। वह स्वयं नहीं करता और अकारण ही ईश्वर अपनी निरंकुश इच्छा को उस पर थोप देता है। अतः यह चिन्तन विचार क्षेत्र में अधिक समर्थन नहीं पा सका। कर्म का सिद्धान्त ही सर्वोपरि सिद्धान्त माना गया। जैनदर्शन का तो यह प्राणतत्व ही है। जैन दर्शन की यह मुक्त घोषणा है कि आत्माओं की अशुद्धता एवं विरूपता “कर्म" के कारण है।
और कर्म भी किसी अन्य के द्वारा लादा हुआ नहीं होता, अपना ही किया होता है । । व्यक्ति ही कर्ता है, व्यक्ति ही भोक्ता है। कृत ही भोगा जाता है, अकृत नहीं। जो कर्ता है वही भोक्ता भी है। यह नहीं कि कर्ता कोई और हो, और भोक्ता कोई और हो। यह आत्माओं की स्वतन्त्रता का वह महान उदघोष है, जिसे कोई महान चुनौती नहीं दी जा सकती।
१ इश्वरप्रेरितो गच्छत स्वर्ग वा स्वभ्रमेव वा २ कम्मुणा उवाही जायहइ - आया० १/३/१ ३ अत्तकडे दुक्खे णो परकडे । भग० १७/५ ४ अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। -उत्त० २०
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