________________
स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
क्रियाकर्मकी जननी
कर्म क्या है और वह आत्मा के साथ कैसे बद्ध होता है । उक्त प्रश्न समाधान के लिए स्पष्ट विचार मांगता है। अन्य दर्शनों में कर्म के सम्वन्ध में विभिन्न धारणाएं हैं, यहां हम उस लम्बे विस्तार में नहीं जाना चाहते। प्रस्तुत प्रसंग जैन दर्शन का है, अतः हम संक्षेप में जैन दर्शन से सम्बन्धित कर्मवाद की ही विवेचना प्रस्तुत करते हैं ।
जैन दर्शन का मन्तव्य है कि समग्र लोक में कार्मण वर्गणा के पुदगल व्याप्त हैं । ये पुदगल स्वयं कर्म नहीं हैं, किन्तु उनमें कर्म होने की योग्यता है । वे कर्मरूप पर्याय विशेष में प्रसंगानुसार परिणत हो जाते हैं । प्राणी के अन्तर में जब भी रागद्वेषात्मक भाव होते हैं, ' तभी तत्क्षण वे आत्मक्षेत्रावगाहो कार्मण वर्गणा के पुदगल कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं और कार्मण नाम के सूक्ष्म शरीर के माध्यम से आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं । आत्मा के साथ बद्ध रहने की उनकी अपनी-अपनी एक काल-मर्यादा होती है, उसे शास्त्रीय भाषा में स्थितबन्ध कहते हैं । जब आत्मा कर्मों का फल भोग कर लेती है तब वह कर्म-पुदगल आत्मा से अलग हो जाती हैं। फल भोग के समय यदि आत्मा के रागद्वेषात्म भाव होते हैं, तो फिर वह नये कर्म बांध लेता है और फिर उन्हें यथाप्रसंग भोगना होता है। इस प्रकार बीज-वृक्ष - न्याय से कर्म और कर्मफल का भोग, फिर कर्म और फिर कर्मफल का भोग - यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है । सांसारिक स्थिति के निचले स्तरों पर कोई क्षण ऐसा नहीं गुजरता, जबकि रागद्वेष की वृत्ति का कोई भी अंश अन्दर से न हो और उस समय कोई भी आत्मा के साथ न बंधता हो। हर क्षण में रागद्वेष किसी न किसी रूप में होते ही हैं और उसके अनुसार कर्मबन्ध भी न्यूनाधिक मात्रा में हर क्षण होता ही रहता है। द्रव्यकर्म पुदगल रूप है, और वह भावकर्म के निमित्त से कर्म का रूप ग्रहण करता है। यह भावकर्म ही है, जिसे जैन दर्शन ने क्रिया कहा है, और जिसे कर्म की जननी कहा जाता हैं। आत्मा का शुभ-अशुभ प्रवृतियां, चेष्टाएं, हरकतें ही क्रिया है। यदि क्रिया हो तो कर्म भी न हो । क्रिया से ही कर्म अस्तित्व में आता है। हर क्रिया की कोई न कोई प्रतिक्रिया होती है और प्रतिक्रिया ही कर्म है ।
१ रागो य दोसो वि य कम्मवीयं - उत्त० ३२/७
२ सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिता - तत्वार्थसूत्र ८/२५
Jain Education International 2010_03
४८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org