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स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
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विरोधी रूप नहीं हो सकते। यदि हैं तो उनमें कोई एक ही रूप मौलिक एवं वास्तविक हो सकता है।' दोनों तो वास्तविक नहीं हो सकते, मौलिक नहीं हो सकते। अतएव धर्म के तत्वदर्शन के समक्ष यह ज्वलन्त प्रश्न है कि यह रूप सही है या वह रूप सही है। आत्मा के किस रूप को सत्य माना जाये। अन्धकार को सच्चा माने या प्रकाश को।
विरूपता का मूल "कर्म" आत्माओं की यह विरूपता स्वयं आत्माओं की अपनी नहीं है, स्वरूपगत नहीं है। जल में उष्णता जिस प्रकार बाहर के तैजस पदाथों के संसर्ग से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार आत्माओं में भी यह काम, क्रोध, भय, लोभ, सुख, दुःख आदि की विरूपता बाहर से आती है, अन्दर से नहीं। अन्दर में तो हर आत्मा अनन्त चैतन्य का प्रकाश लिए हुए है, वहां अन्धकार को एक क्षण के लिए भी स्थान नहीं है। जैन दर्शन की भाषा में दृव्य-दृष्टि से अर्थात अपने मूल स्वरूप से सभी आत्मा शुद्ध है, अशुद्ध कोई है ही नहीं। अशुद्धता पर्यायदृष्टि से है, द्रव्य-दृष्टि से नहीं। अतः सिद्धान्त निश्चित है कि हर आत्मा स्वभाव से शुद्ध है, एक स्वरूप है। जो अशुद्धता है, निरूपता है, भेद है, विभिन्नता है, वह सब विभाव से है, विभाव-परिणति से है।
यह विभाव-परिणति आत्माओं में यों ही आकस्मिक नहीं होती है। यह नहीं कि आत्माओं में जो अशुद्धता है, विरूपता है, वह अहैतुक है और उसका कोई कारण नहीं है। यदि अशुद्धता को अहैतुक माना जाय, तो फिर वह कभी दूर ही नहीं हो सकेगी । जो अहैतुक है, वह कैसे दूर हो सकती है। और, जब वह दूर नहीं हो सकती, तो फिर धर्मसाधना का क्या अर्थ रह जाता है। धर्म-साधना तो आत्मा में सोये हुए परमात्मतत्व को जागृत करने के लिए है, आत्मा के अनन्त प्रकाश को आच्छादित करने वाले आवरणों से मुक्त होने के लिये है। यदि यह सब कुछ नहीं हैं तो फिर साधना अहेतुकता के अन्धकार में भटकती रह जाती है, सर्वथा मूल्यहीन हो जाती है। अतएव भारतीय तत्वचिन्तन ने आत्माओं की शुद्धता को अहैतुक माना है, अहैतुक नहीं।
१ सर्व सुद्धा हु सुद्धणया - द्रव्य सग्रह
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