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स्वः मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
अपने स्वरूप को भूले हुए, महाविष्ट, बहिर्मुखी, संसारग्रस्त व्यक्ति को ही मिथ्यादृष्टि या मिथ्यात्वी कहते हैं। जैन दर्शन में अभव्य और मिथ्यात्वी वैसे ही अपशब्द हैं जैसे कि ब्राहमण धर्म में नास्तिक अनार्य, विधर्मी और पापी, ईसाई मत में इनफाइडेंल, हेरेटिक, एविस्ट आदि और इस्लाम में काफिर जिम्मी आदि। प्रत्येक धर्म यह दावा करता है कि मनुष्य का कल्याण उस धर्मके पालन से ही हो सकता है और जो उस धर्म को नहीं मानता वह नास्तिक है, काफिर है, अधर्मी और पापी है, उसके इहलोक व परलोक दोनों नष्ट होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि एक धर्म का बड़े से बड़ा सन्त और महात्मा अन्य सब धमों की दृष्टि में अधर्मी और पापी ही है। अतएव संसार में कोई व्यक्ति भी धर्मात्मा नहीं हो सकता आत्मोन्नयन नहीं कर सकता - सभी अधर्मी और पापी हैं। जैनधर्म एक अत्यन्त उदार, वैज्ञानिक युक्तियुक्त, विवेकशील एवं विचारवान परम्परा है तथापि व्यवहारों में प्रायः प्रत्येक नामधारी जैनी भी नहीं मानता, समझता और कहता है कि जैनों के अतिरिक्त अन्य सब मनुष्य मिथ्यात्वी एवं अधर्मी हैं।
सब तेरे सिवा काफिर, आखिर इसका मतलब क्या।
सिर फिरादे इन्सान का, ऐसा खब्ते मजहब क्या।। बहुतों की तो स्थिति है -
मुखालफीन को हम कह तो देते हैं काफिर।
मगर यह डरते हैं दिल में हमीं न काफिर हों।।
वस्तुतः जो लोग धर्म तत्व, धर्म के स्वरूप और रहस्य से अनभिज्ञ होते हैं और धर्म के स्वयंभू ठेकेदार बन बैठते हैं, वे ही ऐसी अनुदार एवं विवेकहीन मनोवृत्ति का परिचय देते हैं। ऐसा कदाग्रह यह कठमुल्लापन जैनधर्म और दर्शन की प्रकृति के प्रतिकूल है। जैनदृष्टि तो इस विषय में सुस्पष्ट है और ऐसी विलक्षणताओं से सम्पन्न है जो अन्य किसी धार्मिक परम्परा में दृष्टिगोचर नहीं होती, यथा --
१. जैन दर्शन आत्म तत्व की सत्ता को मानकर चलता है, और आत्म-विकास की विभिन्न सम्भावनाओं एवं अवस्थाओं का सम्यक्तरूपण करता है।
२. आत्म विकास का ओम नमः मिथ्यात्व अवस्था में ही होता है। वह अबुद्विपूर्वक और आकस्मिक भी हो सकता है, जब कर्म बन्धन के सहसा ढीला पड़ जाने से परिणामों में उज्ज्वलता या निर्मलता आ जाती है। बुद्धिपूर्वक तब होता है जब कोई
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