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मिथ्यात्वीका आध्यात्मिक विकास
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तत्व में अधिकतम या पूर्ण है। अजीव जड़, अचेतन या पुदगल नाम का जो दूसरा तत्व है उसके साथ गाढ सम्बन्ध रहने से और उसके कारण होने वाली क्रियाओं प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप जीवात्मा देहधारी होकर अपने स्वभाव से भटककर जन्म-मरणरूप संसरण करता रहता है। एक पुरातन कवि ने “प्रष्ठेव्याधः करपतक्षरेः सारमेयम समेतः"आदि पद्य में संसारी जीव की इस दिशा का सुन्दर चित्रण किया है। आत्मारूपी गन्धमणि को नाभि में धारण किये हुए परन्तु उसके अस्तित्व से अनभिज्ञ भव-विभ्रान्त जीव रूपी कस्तूरी मृग के पीछे काल रूपी कर व्याध बाण चढ़ाये तथा नाना रोगादि रूप शिकारी कुत्तों के साथ दौड़ रहा है, और वह मृग जन्म-मरण रूपी विषम कान्तार में दिग्भ्रष्ट-पथभ्रष्ट हो भटक रहा है। "अभी त्राणदायक निर्गमन मार्ग प्राप्त नहीं हुआ" एक उर्दू शायर ने कहा है -
हवाएं नपुत के तावे हैं जिनके जिस्म पऐ अकबर।
उन्हीं की रूह रहती है बदन में मुज्महिल होकर।। अर्थात “जो लोग विषय-वासनाओं में फंसे हैं उनकी आत्मा देह में कैदी बनी घुटती रहती है।" इतना ही नहीं -
लज्जत है रूटठ को तने खाकी से मेल में।
फितरत ने मस्त कर रक्खा है कैदी को जेल में ।।
"भौतिक शरीर के साथ एकत्व बुद्धि एवं आसक्ति के कारण यह आत्मारूप कैदी इस भवरूपी बन्दीगृह में प्रमवश सुखमग्न रहता है।"
परन्तु ---
नफत में उलझा है अकबर जो अभी दिल्ली दूर है।
राह के ये खुशनुमा मंजर हैं, मंजिल दूर है।।
“ जव तक विषय-कथाओं में उलझा पड़ा है, भटकता ही रहेगा। मार्ग के लुभावने दृश्य भव भटकने में ही सहायक होते हैं, लक्ष्य तो दूर है।" अतएव जबतक रूह पर गफलत से हुई का धव्वा लगा रहेगा, आत्मा मोहनिद्रा से जागृत नहीं होगा, उसमें स्व-पर भेदविज्ञान प्रगट नही बना रहेगा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि वह, जैसा कि भगवान महावीर ने कहा है, स्वयं से युद्ध करना प्रारम्भ कर दे - आत्म विजय के प्रयत्न में जुट जाय। जब मनुष्य का युद्ध स्वयं से प्रारम्भ होता है, तभी उसका मूल्य होता
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