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स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
दीक्षा लेने के पश्चात तो मेरा और उनका सम्पर्क और अधिक सघन होगया। महासभा के संघर्षो में भी हमारा परामर्श परस्पर चलता ही रहा।
उनकी कमी कहें या विशेषता, वह थी, उनकी स्पष्टवादिता। स्पष्टवादी लोगों को अधिक चाह भी नहीं रहती। महाभारत की उक्ति यथार्थ ही लगती है कि -
सुलभा पुरूषाः राजन् सततं प्रिय वापिनः
अपियस्य च यथ्यस्य। वक्ता श्रोताश्च दुर्लभः।।
अर्थात हे राजन । संसार में पथ्य हो और प्रिय हो, वैसा बोलने वाला पुरूष तो बहुत दुर्लभ है, पर पथ्य हो और अप्रिय हो, ऐसा वचन बोलने वाले तो कम ही हैं, पर ऐसे वचन सुनने वाले तो उनसे भी कम हैं।
अस्तु, उनकी स्पष्टवादिता को भी विशेषता मानकर उनका स्मृति ग्रंथ निकालने में लगे मनीषी बधाई के पात्र हैं।
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