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एक प्रज्ञा पुरुष
मुझे यह जानकर परम प्रसन्नता हुई कि स्व. श्री मोहनलालजी बांठिया का स्मृति ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है। मैं अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों की आदि पर जाता हूं तो बहुत ही प्राचीन हैं। मैं इसी वर्ष के सितम्बर मास में अपने ८० वर्ष में प्रवेश कर गया हूं । उनसे मेरा पहला सम्पर्क हुआ, जब में लगभग १५ वर्ष का ही रहा हूंगा। पर, वह सम्पर्क अनायास ही नहीं, एक ऐतिहासिक कारण से हुआ था । तेरापंथ के अष्टमाचार्य पूज्य कालू गणी थे। बड़ौदा स्टेट में तथा गुजरात (अहमदाबाद) में बाल-दीक्षा निरोधक प्रस्ताव जोर शौर से उठा था ।
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स्मृति का शतदल
- आचार्य श्री नगराजजी डी. लिट.
उस युग में गधैया परिवार, चोपड़ा परिवार व गोठी परिवार शासन सम्बन्धी कार्यो में अग्रणी परिवारों में थे ।
उस सन्दर्भ में पूज्य कालू गणी और मंत्री मुनि श्री मगनलालजी के परामर्श पर स्व. श्री वृद्धिचन्दजी गोठी पर यह दायित्व आया कि वे कतिपय अंग्रेजी पढ़े-लिखे प्रतिनिधियों और कतिपय वैरागियों को लेकर बड़ौदा और अहमदाबाद में बाल-दीक्षा-निरोधक बिल के सामने तेरापंथ की योग्य दीक्षा प्रमाण को प्रस्तुत करने का उपक्रम करें । अस्तु, तब श्री वृद्धिचन्दजी गोठी ने अपने दो सहयोगी अंग्रेजी पढ़े-लिखे चुने, उनमें एक थे श्री मदनचन्दजी गोठी तथा दूसरे थे श्री मोहनलालजी बांठिया । दोनों ही सहयोगी युवा थे तथा अंग्रेजी में धारा प्रवाह बोलने वाले थे। श्रीगणेशदासजी गधैया और उनके अनुज श्री वृद्धिचन्दजी गधैया ने चार वैरागियों को चुना । अपने प्रतिनिधि श्री मूलजी दूगड़ को व्यवस्थापक के रूप में साथ भेजा। उक्त चार वैरागियों में एक वैरागी मैं था। तब से श्री मोहनलालजी बांठिया से मेरे साथ सम्पर्क हुआ। उनकी कर्मठता और उनकी विचारशीलता से मैं प्रभावित हो चुका था ।
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