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स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
श्री विजय सिंह जी नाहर तथा श्री सिद्धराजजी ढढ़ा आदि समाज के अग्रणी लोग थे और श्री बांठियाजी तो एकमात्र प्राण ही थे। उस समिति की पत्रिका ओसवाल नवयुवक के बांठियाजी संपादक थे। पुराने अंको को पढ़ने से इस व्यक्ति की मेधा शक्ति का एहसास होता है। यह पत्रिका साहित्य जगत और समाज में अपना स्थान रखती थी। बांठियाजी कट्टर तेरापंथी होते हुए भी आचार्यश्री तुलसी के संपर्क में बहुत बाद में आये। लेकिन आये तो ऐसे आये कि तेरापंथ की प्रत्येक गतिविधि में इसका सक्रिय सहयोग रहा।
तेरापंथ समाज की शिक्षण संस्था श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी विद्यालय के उन्नयन में इनका सर्वोपरि स्थान था। उस संस्था के मंत्री व सभापति के रूप में रहकर इन्होने संस्था की एक लम्बी अवधि तक सेवा की। मैं उसी विद्यालय का छात्र हूं और दावे के साथ कह सकता हूं कि उस समय इस विद्यालय का स्थान बड़े बाजार के सभी हिन्दी भाषी विद्यालयों में अग्रणी था। इस विद्यालय के अग्रणी होने का बहुत बड़ा श्रेय श्री बांठियाजी को था।
आचार्य श्री तुलसी के संपर्क में आने के पश्चात इनका प्रमुख कार्यक्षेत्र श्री जैन श्वेताम्वर तेरापंथी महासभा हो गया। इस संस्था के माध्यम से इन्होने तेरापंथ समाज को अपनी अमूल्य सेवाएं दी।
तेरापंथ समाज पर जब जब संकट के बादल मंडराये, बांठियाजी महारथी अर्जुन की तरह हमेशा अगले मोर्चे पर रहे और सतत सफल हुए।
__ मेरा बड़ा सौभाग्य रहा कि इस मनीषि व्यक्ति ने सदा मुझे साथ रखा और अपनी अनमोल शिक्षाओं से लाभान्वित किया। मैंने जो कुछ भी अर्जन किया उसमें श्री बांठियाजी और स्वर्गीय परम मित्र जयचन्दलालजी कोठारी का ही अवदान है । हिम्मत
और साहस बांठियाजी की नैसर्गिक देन थी वे हृदय के रोगी होते हुए भी कभी घबड़ाते नहीं थे। हमेशा बीमारी से जूझते रहकर अपना कार्य करते रहे। सहयोगियों के साथ उनका पिता तुल्य व्यवहार रहता था। हमेशा वे अपने सहयोगियों को भी प्रोत्साहित करते रहते तथा कार्य का श्रेय भी उनको देते। इसलिये, उनके साथी और सहयोगी हमेशा प्राण-पन से उनके साथ रहे।
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