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य।२३
आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए गया है 'शब्दगुणकमाकाशम्' जबकि जैनदर्शन में आकाश का
गुण अवगाहन करना माना गया है। शब्द को तो पुद्गल द्रव्य में इस प्रकार आगम और युक्तियों से काल पथक द्रव्य के सम्मिलित किया गया है। रूप में सिद्ध है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, अप, तेजस् वायु, आकाश, काल के उपकार हैं। द्रव्य का होना ही वर्तना, उसका विभिन्न काल, दिशा, आत्मा और मन को द्रव्य माना जाता है। इनमें से पर्यायों में परिणमन, परिणाम, देशान्तर प्राप्ति आदि क्रिया, आकाश, काल एवं आत्मा को तो पृथक् द्रव्य के रूप में जैन ज्येष्ठ होना परत्व तथा कनिष्ठ होना अपरत्व है। काल को दार्शनिकों ने भी अंगीकार किया है, किन्तु पृथ्वी, अप, तेजस् परमार्थ और व्यवहार काल के रूप में दो प्रकार का प्रतिपादित एवं वायु की पृथक् द्रव्यता मानने का जैनदर्शनानुसार कोई किया जाता है।
औचित्य नहीं है, क्योंकि वे सजीव होने पर जीव द्रव्य में और जैन प्रतिपादन का वैशिष्ट्य
निर्जीव होने पर पुद्गल द्रव्य में समाहित हो जाते हैं। दिशा कोई
पृथक् द्रव्य नहीं है वह तो 'आकाश' की ही पर्याय है। मन को पंचास्तिकायात्मक या षड्द्रव्यात्मक जगत् का प्रतिपादन जैन आगम् वाङ्गमय का महत्वपूर्ण प्रतिपादन है। जीव एवं
जैन दार्शनिकों ने पुद्गल में सम्मिलित किया है। पुद्गल अथवा जड़ एवं चेतन का अनुभव तो हमें होता ही है,
आगमों में पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय का विस्तार किन्तु इनमें गति एवं स्थिति भी देखी जाती है। गति एवं स्थिति से निरूपण मिलता है। पुद्गल द्रव्य में 'परमाणु' का विवेचन में सहायक उदासीन निमित्त के रूप में क्रमश: धर्मास्तिकाय एवं महत्वपूर्ण है। परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी स्वतंत्र इकाई है। अधर्मास्तिकाय की स्वीकृति और उसका जीव एवं पुद्गल के
___परमाणु का जैसा वर्णन आगमों में उपलब्ध होता है वह कारण लोकव्यापित्व स्वीकार करना संग्रत ही प्रतीत होता है। आश्चर्यजनक है। एक परमाणु दूसरे परमाणु से आकार में तल्य इन सबके आश्रय हेतु आकाशास्तिकाय का प्रतिपादन अपरिहार्य होकर भी वर्ण, गंध रस एवं स्पर्श में भिन्न होता है। कोई काला, था। आकाश को लोक तक सीमित न मानकर उसे अलोक में कोई नीला आदि वर्ण का होता है। कोई एक गुण काला, कोई भी स्वीकार किया गया है, क्योंकि लोक के बाहर रिक्त स्थान द्विगुण काला आदि होने से भी उनमें भेद होता है। आकाशस्वरूप ही हो सकता है। पंचास्तिकाय के साथ पर्याय परमाणु की अस्पृशद्गति अद्भुत है। इस गति के कारण परिणमन के हेतु रूप में काल को मान्यता देना भी जैन-परम्परा परमाणु एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच को आवश्यक प्रतीत हुआ। इसलिए षड् द्रव्यों की मान्यता सकता है।२४ साकार हो गई।
जैन दर्शन के ग्रन्थों में आगे चलकर 'अस्तिकाय' के स्थान यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि धर्मास्तिकाय एवं पर द्रव्य शब्द का ही प्रयोग हो गया तथा वस्तु या सत् की अधर्मास्तिकाय जैन दर्शन का अपना वैशिष्ट्य है। इनका अन्य । व्याख्या 'द्रव्यपर्यायात्मक' स्वरूप से की जाने लगी। किन्तु किसी भारतीय दर्शन में निरूपण नहीं हुआ है। यद्यपि आगमों में अस्तिकाय एवं द्रव्य के स्वरूप में किंचित भेद रहा सांख्यदर्शन में मान्य प्रकृति के रजोगुण से धर्मद्रव्य का तथा है। तमोगुण से अधर्मद्रव्य का साम्य प्रतीत होता है, किन्तु जैन दर्शन संदर्भ में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय स्वतन्त्र द्रव्य हैं, जबकि
चउविहे लोए वियाहिते : दव्वतो लोए, खेत्तओ लोए, सांख्य में ये प्रकृति के स्वरूप हैं। दूसरी बात यह है कि धर्म एवं
कालओ लोए, भावओ लोए। -इसिभासियाई, ३१वाँ अधर्म द्रव्य लोकव्यापी हैं और तीसरी बात यह है कि सत्त्वगुण,
अध्ययन रजोगुण एवं तमोगुण मिलकर कार्य करते हैं, जबकि जैनदर्शन
गोयमा! पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, में ये दोनों स्वतंत्ररूपेण कार्य में सहायक बनते हैं।
अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, आकाश को द्रव्य रूप में प्राय: सभी दर्शनों ने स्वीकार पोगलत्थिकाए। -व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २, उद्देशक १०, किया है, किन्तु आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश भेद जैनेतर दर्शनों में प्राप्त नहीं होते। न्याय, वैशेषिक, वेदान्त ३. से किं तं दव्वाणमे? दव्वणामे छविहे पण्णत्ते, तंजहासांख्य, आदि दर्शनों में 'शब्द' को आकाश द्रव्य का गुण माना धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए,
० अष्टदशी/ 2300
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