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जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए, अद्धासमए य। अनुयोगद्वार कंचन कांकरिया सूत्र, २१८
धर्म का सही स्वरूप द्रष्टव्य, व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक २, उद्देश्यक १०, सूत्र ७
उत्तराध्ययन सूत्र के आठवें 'कापिलीय' अध्ययन में एक णवरं पएसा अणंता भवियव्वा। -वही
जिज्ञासु ने पूछा कि -
अधुवे आसासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए । ६. वही, सूत्र २-६
किं णाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दुग्गई ण गच्छेज्जा ।। अनुयोगद्वार सूत्र २१८
अर्थात् इस अस्थिर, अशाश्वत और प्रचुर दु:खमय संसार में ८. व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक, ८, उद्देशक १०, सूत्र २३-२४ ऐसा कौन-सा कर्म है जिसके फलस्वरूप मैं दुर्गति में न जाऊँ? इस ९. स्थानांग सूत्र, स्थान ४, उद्देशक ३
अध्ययन की १८ गाथाओं में बड़े ही सुन्दर ढंग से धर्म का स्वरूप १०. व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक २५, उद्देशक २
समझाते हुए विशुद्ध प्रज्ञा वाले कपिल केवली ने कहा कि जो केवली
प्ररूपित दया धर्म का पालन करते हैं, वे संसार सागर से तिर जाते ११. प्रज्ञापना सूत्र, पद ५, सूत्र ५००-५०३
हैं। इस धर्म का पालन करने वालों ने ही इस लोक-परलोक को १२. वही, सूत्र ५०४
सफल किया है और करेंगे। १३. वही, सूत्र ४३८-४३९
कई जिज्ञासु प्रश्न करते हैं कि इस लोक और परलोक को १४. गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो।
सुखी बनाने के लिए पौषध प्रतिक्रमणादि कष्टकारी क्रियाएँ क्यों
करें? भावों को शुद्ध कर लेंगे हमारी मुक्ति हो जायेगी। बंधुओं हर भायणं सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं।
साधक माता मरुदेवी या भरत चक्रवर्ती जैसा नहीं बन सकता वत्तणा लक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्खणो।
इसीलिए महामुनिश्वर भगवान महावीर ने सामायिक पौषध नाणेण दंसणेण च सुहेण दुहेण य।।
प्रतिक्रमणादि करने का उपदेश दिया है। प्रभु महावीर के बताये हुए सबंधयार उज्जोओ, पभा छायातवे इ वा।
सारे नियम राग द्वेष की प्रवृत्तियों को वश में करने के लिए ही हैं। वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ।।-उत्तराध्ययन सूत्र जैन धर्म में साधना की जो पद्धतियाँ बतलाई गई हैं वे इतनी सुन्दर २८.९-१२
और बेजोड़ हैं कि उनके द्वारा हम शीघ्र ही अपने लक्ष्य को प्राप्त
कर सकते हैं। इन पवित्र क्रियाओं में जब तक मन जुड़ा रहेगा तब १५. प्रज्ञापना सूत्र, पद ३ सूत्र २७०
तक अपवित्र विचार मन में नहीं आएँगे, सावध भाषा नहीं बोली १६. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक १३, उद्देशक ४, सूत्र २४-२८
जायेगी तथा काया से भी छह काया के जीवों की रक्षा होगी। १७. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २०, उद्देशक २, सूत्र ४-८ इसीलिए ज्ञानी महात्मा कहते हैं कि धार्मिक क्रियाओं को छा जाने अत्र द्रव्याभेदवर्ति-नवर्तनादिविवक्षया।
दो जीवन के हर एक क्षण पर, एकमेक हो जाने दो शरीर की एककालोऽपि वर्तनाद्यात्मा जीवाजीवतयोदितः।
एक क्रियाओं पर तो कषायों पर शालीन हो जायेगी। पर्यायाणां हि द्रव्यत्वेऽनवस्थापि प्रसज्यते।
धार्मिक क्रियाओं का महत्व समझ में आ जाये तो इसमें बहुत पर्यायरूपस्तत्काल: पृथग् द्रव्यं न संभवेत।। -
मन लगता है और एक अद्भुत अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है
कि इन क्रियाओं के माध्यम से अनंतानंत जीवों को अभयदान प्रदान लोकप्रकाश, सर्ग २८, श्लोक १३ व १५
किया है जिसके फलस्वरूप कर्मों के पुंज के पुंज नष्ट हो रहे हैं। १९. लोकप्रकाश २८.४७
धार्मिक क्रियाओं का फल तत्काल दिखाई नहीं दे तो भी विश्वास २०. वही २८.४८
क्रियाओं का फल तत्काल दिखाई नहीं दे तो भी विश्वास रखो उसका २१. वही २८.४९
फल अवश्य मिलता है क्योंकि ये सर्वांगीण विकास की जड़ है। इनका
स्वाध्याय आदि से सिंचन किया जाये तो इसकी शान्ति का दूसरा कोई २२. वही २८.५३
फल तीन लोक में नहीं है। २३. लोकप्रकाश २८.५५ के पश्चात्
तीर्थंकरों को तीर्थंकर बनाने वाली, गणधरों को गणधर बनाने २४. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र
वाली, आचार्यों को आचार्य बनाने वाली यह धर्म करणी ही है। अंत:करण से धार्मिक क्रियाओं को करने वाला इस लोक में भी आनंद और शांति में रमण करने के कारण सुखी होता है और परलोक में भी सुखी रहता है क्योंकि मोक्ष मार्ग पर चलने वाला रास्ते में भी कहीं विश्राम करता है तो उत्तम स्थान यानी वैमानिक में ही करता है। इसलिए हमें दया, संवर, सामायिक, पौषधादि करके
हमें अपनी घड़ियों को सफल करना है। ० अष्टदशी / 2310
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