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________________ नाणस्स सव्वस्स पगासणाए है, तप त्याग की वृद्धि होती है एवं अतिचारों की शुद्धि होती है। अन्नाण-मोहस्स विवज्जाणाए। सद्गुणों के संरक्षक, संवर्धन और संशोधन के लिए स्वाध्याय रागस्स दोसस्स य संखएणं आवश्यक है। अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिलने का अर्थ है शंका एगन्तसोक्खं समुवेई मोक्खं ।। रहित होना, यही स्वाध्याय है। स्वाध्याय की परम्परा से संदेह का तस्सेस मग्गो गुरू विद्वसेवा निवारण होता है। ज्ञान में विशेष से विशेषतर एवं विशेषतम विवज्जणा बालजणस्स दूरा। उपलब्धि का अनुभव होता है। सज्झाय-एगन्तनिसेवणा य स्वाध्याय का जैन परम्परा में कितना महत्व रहा है वह इसी सुत्तऽत्थसंचिन्तणया धिई य। बात से प्रकट होता है कि मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय अर्थात् संपूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से अज्ञान और मोह के करें, दूसरे प्रहर में ध्यान करें, तीसरे पहर में भिक्षाचर्या एवं परिहार से राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से जीव एकांत सुख रूप मोक्ष को दैहिक आवश्यकताओं की वृत्ति का कार्य करें। पुन: चतुर्थ प्रहर प्राप्त करता है। गुरुजनों की, वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों में स्वाध्याय करें। इसी प्रकार रात्रि प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे के सम्पर्क से दूर रहना, सूत्र और अर्थ का चिंतन करना, स्वाध्याय में ध्यान, तीसरे में निद्रा व चौथे में पुन: स्वाध्याय का निर्देश है। करना और धैर्य रखना यह दुःखों से मुक्ति का उपाय है। इस प्रकार मुनि प्रतिदिन चार प्रहर अर्थात् १२ घंटे स्वाध्याय में उत्तराध्ययन-सूत्र में कहा गया है कि "सझाय वा निउतेणमं रत रहें। दूसरे शब्दों में साधक-जीवन का आधा भाग स्वाध्याय सव्वदुक्खविमोक्खणे' अर्थात स्वाध्याय करते रहने से समस्त के लिये नियत है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा दुःखों से मुक्ति मिलती है। स्वाध्याय के विषय में कहा गया है। में स्वाध्याय की महत्ता प्राचीन काल से ही सुस्थापित रही है कि जैसे अंधे व्यक्ति के लिये करोड़ो दीपकों का प्रकाश भी क्याकि यहा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति के अज्ञान व्यर्थ है किन्तु आंख वाले व्यक्ति के लिए एक भी दीपक का का निवारण संभव है। प्रकाश सार्थक होता है। इसी प्रकार जिसके अन्तर चक्षु खुल गये सत्-साहित्य के पठन के रूप में स्वाध्याय की क्या हो, जिसकी अन्तर यात्रा प्रारंभ हो गई है, ऐसे अध्यात्मिक उपयोगिता है? यह सुस्पष्ट है कि वस्तुत: सत् साहित्य का साधक के लिये स्वल्प अध्ययन भी लाभप्रद होता है अन्यथा अध्ययन व्यक्ति के जीवन की दृष्टि को ही बदल देता है। ऐसे आत्म-विस्तृत व्यक्ति के लिये करोड़ों पदों का ज्ञान भी निरर्थक अनेक लोग हैं जिनकी सत्-साहित्य के अध्ययन से जीवन की होता है। स्वाध्याय में अंतर चक्षु का खुलना-आत्मदृष्टा बनाना, दिशा ही बदल गई। स्वाध्याय एक ऐसा माध्यम है जो एकांत स्वयं में झांकना पहली शर्त है। शास्त्र का पढ़ना या अध्ययन के क्षणों में हमें अकेलापन महसूस नहीं होने देता और एक सच्चे करना उसका दूसरा चरण है। मित्र की भांति सदैव साथ रहता है और मार्गदर्शन करता है। उत्तराध्ययन-सूत्र में यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि मन में सदैव मूल्यांकन चलता रहता है, स्वाध्याय के द्वारा स्वाध्याय से जीव को क्या लाभ है। इसके उत्तर में कहा गया सदैव हमको इसका परीक्षण करते रहना चाहिये। कुछ लिखते कि स्वाध्याय से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होता है। दूसरे शब्दों रहने की प्रवृत्ति भी स्वाध्याय से प्राप्त होती है जो सदैव ताजगी में आत्मा मिथ्या ज्ञान का आचरण दूर कर सम्यक ज्ञान का प्रदान करती है। वैयक्तिक भिन्नता से उत्पन्न समस्या का अर्जन करता है। इसी प्रकार स्थानांग-सूत्र में शास्त्रध्ययन के समाधान भी स्वाध्याय ही है। स्वाध्याय से कर्म क्षीण होते हैं, ज्ञान लाभ बताये गये हैं। इसमें कहा गया है कि सूत्र की वाचना के देने की क्षमता जागृत होती है। स्वाध्याय से सूत्र, अर्थ, सूत्रार्थ पांच लाभ है। १. वाचना से श्रुत का संग्रह होता है २. से संबंधित मिथ्या धारणाओं का अन्त होता है। स्मरण शक्ति शास्त्राध्ययन अध्यापन की प्रवृति से शिष्य का हित होता है तीव्र होती है। यथार्थत: स्वाध्याय वह योग है जिसमें ज्ञानयोग, क्योंकि वह उसके ज्ञान प्राप्ति का महत्वपूर्ण साधन है। ३. कर्मयोग एवं भक्तियोग का समन्वय है एवं जिससे परमात्म-पद शास्त्राध्ययन अध्यापन की प्रवृत्ति बनी रहने से ज्ञानावरणीय कर्मों की प्राप्ति होती है। का क्षय होता है। ४. अध्ययन की प्रवृत्ति के जीवित रहने से -गोलछा चौक, बीकानेर (राज.) उसके विस्मृत होने की संभावना नहीं रहती। ५. जब श्रुत स्थिर रहता है तो उसकी अविछिन्न परम्परा चलती रहती है। स्वाध्याय से श्रुत का संग्रह होता है, ज्ञान के प्रतिबंधक कर्मों की निर्जरा होती है। बुद्धि निर्मल होती है। संशय की निवृत्ति होती ० अष्टदशी / 2250 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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